माँ दुर्गा के 9 रूपों का वर्णन | Navratri Special

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माँ दुर्गा के 9 रूपों का वर्णन (Maa durga ke Nav rupon ka varnan) 


ॐ सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 

शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।

रोग - शोक का विनाश करती है माँ शैलपुत्री।🙏

        मां दुर्गा का प्रथम रूप शैलपुत्री का है। पर्वतराज हिमालय की होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन कलश स्थापना के साथ इनकी पूजा की जाती है। भगवती के पहले स्वरूप को शास्त्रों में शैलपुत्री कहा गया है। शैलपुत्री माता सती (पार्वती) का ही रूप हैं। माता सती के पिता, प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ करवाया और उसमें सभी देवी-देवताओं को बुलाया, लेकिन भगवान शंकर और माता सती को निमंत्रण नहीं भेजा। माता सती को जब यह पता चला, तो वह भगवान शंकर के पास पहुंचीं और यज्ञ में जाने की इच्छा जाहिर की। भगवान शंकर ने कहा कि बिना निमंत्रण के यज्ञ में जाना श्रेयकर नहीं होगा, लेकिन माता सती की इच्छा के कारण भगवान शंकर ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। माता सती जब अपने पिता राजा दक्ष के यहां पहुंची, तो वहां परिजनों ने उनका उपहास उड़ाया और किसी ने ठीक से उनसे बात तक नहीं की। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत कष्ट पहुंचा। उन्होंने देखा कि वहां भगवान शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने भगवान शंकर के प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर उनका हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा, भगवान शंकर की बात न मान, यहां आकर बहुत बड़ी गलती की है। माता सती अपने पति के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रोधित होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करवा दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्मकर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुईं। हेमवती भी उनका ही नाम है। मां शैलपुत्री की आराधना से भक्तों को चेतना का सर्वोच्च शिखर प्राप्त होता है, जिससे शरीर में स्थित 'कुंडलिनी शक्ति' जागृत होकर रोग-शोक रूपी दैत्यों का विनाश करती है। दुर्गा के पहले स्वरूप में शैलपुत्री मानव के मन पर आधिपत्य रखती हैं। जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने की शक्ति पर्वत कुमारी मां शैलपुत्री ही प्रदान करती हैं। इनके एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे में कमल का फूल रहता है। इनका वाहन बैल है। 'योग पुस्तकों' में इनका स्थान प्रत्येक प्राणी में 'नाभि चक्र' से नीचे स्थित 'मूलाधार चक्र' को बताया गया है। यही वह स्थान है, जहां आद्य शक्ति 'कुंडलिनी' के रूप में रहती हैं। इसलिए नवरात्र के प्रथम दिन देवी की उपासना में योगी अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थिर करते हैं। पूर्वजन्म की भांति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियां अनंत हैं। 


अडिगता का संदेश देती माँ ब्रह्मचारिणी🙏


       नवरात्र के दूसरे दिन भक्त ध्यानमग्न होकर माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा करते हैं। देवी ब्रह्मचारिणी तप की शक्ति का प्रतीक है। माँ का यह स्वरूप भक्तों को अनंत फल देने वाला कहा गया है। सर्वव्यापी ब्रह्मांडीय चेतना का स्वरूप, मां ब्रह्मचारिणी के रूप में भक्तों को आशीष देता है। ब्रह्म का अर्थ वह परम चेतना है, जिसका न तो कोई आदि है और न कोई अंत, जिसके पार कुछ भी नहीं है। नवरात्र के दूसरे दिन भक्त ध्यान मग्न होकर परमसत्ता की दिव्य अनुभूति मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करते हैं। मां के इस स्वरूप की आराधना करने वालों की शक्तियां असीमित, अनंत हो जाती हैं। फलस्वरूप उसके समस्त दुख दूर होते हैं और वह सुखों को प्राप्त करता है। सत, चित्त, आनंदमय ब्रह्म की प्राप्ति कराना ही ब्रह्मचारिणी का स्वभाव है। चंद्रमा के समान निर्मल, कांतिमय और भव्य रूप वाली, दो भुजाओं वाली ब्रह्मचारिणी कौमारी शक्ति का स्थान योगियों ने 'स्वाधिष्ठान चक्र' में बताया है। इनके एक हाथ में कमंडल तथा दूसरे में चंदन की माला रहती है। अपने भक्तों को मां ब्रह्मचारिणी प्रत्येक काम में सफलता देती हैं। वे सन्मार्ग से कभी नहीं हटते और जीवन के कठिन संघर्षों में भी अपने कर्तव्य का पालन, बिना विचलित हुए करते रहते हैं। इनका वाहन शिखर अर्थात पर्वत की चोटी को बताया गया है। मान्यता है कि देवी दुर्गा का यह रूप साधकों को अमोघ फल प्रदान करता है। साधक को यश, सिद्धि और सर्वत्र विजय की प्राप्ति होती है। नवदुर्गाओं में द्वितीय देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण-ज्योर्तिमय है। वे गहन तप में लीन हैं। देवी का मुख दिव्य तेज से भरा है और भंगिमा शांत है। मुखमंडल पर विकट तपस्या के कारण अद्भुत तेज और अद्वितीय कांति का अनूठा संगम है, जिससे तीनों लोक प्रकाशमान हो रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि जो भी भक्त मां ब्रह्मचारिणी का व्रत करता है, वह कभी भी अपने जीवन में नहीं भटकता। अपने मार्ग पर स्थिर रहता है और उसे जीवन में सफलता प्राप्त होती है।

साहस और शक्ति की देवी माँ चंद्रघंटा🙏


       देवी चंद्रघंटा मन की नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित कर भक्तों के भाग्य को समृद्ध करती हैं। नवरात्र के तीसरे दिन मां चंद्रघंटा की पूजा का विधान है। चंद्र हमारी बदलती हुई भावनाओं, विचारों का प्रतीक है। घंटे का अभिप्राय मंदिर में स्थित घंटा एवं उसकी ध्वनि-कंपन से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा है । अस्त-व्यस्त मानव मन, जो विभिन्न विचारों- भावों में उलझा रहता है, मां चंद्रघंटा की आराधना कर सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाकर दैवीय चेतना का साक्षात्कार करता है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्द्धचंद्र है। इनके दस हाथ हैं, जिनमें एक हाथ में कमल का फूल, एक में कमंडल, एक में त्रिशूल, एक में गदा, एक में तलवार, एक में  धनुष और एक में बाण है। । इनका एक हाथ हृदय पर, एक हाथ आशीर्वाद मुद्रा में और एक अभय मुद्रा में रहता है। ये रत्न जड़ित आभूषण धारण करती हैं। गले में सफेद फूलों की माला रहती है। चंद्रघंटा का वाहन बाघ है। देहधारियों में इस शक्ति रूप का स्थान 'मणिपुर चक्र' है। साधक इसी मणिपुर चक्र में अपना ध्यान पहुंचाता है। मां चंद्रघंटा सच्चे और एकाग्र भक्त को बहुत जल्दी फल देती हैं और उनके कष्टों का निवारण तुरंत करती हैं। इनका स्वरूप दानव, दैत्य, राक्षसों को कंपाने वाला तथा इनकी प्रचंड ध्वनि उनकी हिम्मत पस्त कर देने वाली होती है। मां की प्रचंड घंटे की-सी ध्वनि बुरी शक्तियों को भागने पर मजबूर करती है। इसके विपरीत साधकों और भक्तों को इनका स्वरूप सौम्य, शांत और भव्य दिखाई देता है। मां चंद्रघंटा की आराधना से साधक में न केवल साहस और निर्भयता का बल्कि सौम्यता और विनम्रता का भी विकास होता है। उनकी देह और स्वर में दिव्य कांति और मधुरता का समावेश हो जाता है और उनके शरीर से तेज-सा निकलता जान पड़ता है। मां चंद्रघंटा जिस पर दृष्टि डालती हैं, उन्हें अद्भुत शांति और सुख का अनुभव होता है। 

प्राणशक्ति देवी माँ कूष्माण्डा 🙏


       पवित्र और शुद्ध मन से नवरात्र के चतुर्थ दिन मां कूष्मांडा की आराधना कर भक्तगण अपनी आंतरिक प्राणशक्ति को ऊर्जावान बनाते हैं। कूष्मांडा का अभिप्राय कद्दू से है। एक पूर्ण गोलाकार वृत्त की भांति मानव शरीर में स्थित प्राणशक्ति दिन-रात सभी जीव-जंतुओं का कल्याण करती है। प्राणशक्ति, बुद्धिमत्ता और शक्ति की वृद्धि करती है। 'कू' का अर्थ है छोटा, ऊर्जा और 'अंड' का अर्थ है ब्रह्माण्डीय गोला । धर्मग्रंथों में मिलने वाले वर्णन के अनुसार, अपनी मंद और हल्की सी मुस्कान मात्र से अंड को उत्पन्न करने वाली होने के कारण ही इन्हें कूष्मांडा कहा गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार था, तब कूष्मांडा देवी ने महाशून्य में अपने मंद हास से उजाला करते हुए 'अंड' की उत्पत्ति की, जो कि बीज रूप में ब्रह्म तत्व से मिला और ब्रह्मांड बना। इस प्रकार मां दुर्गा का यही अजन्मा और आद्यशक्ति रूप है। जीवों में इनका स्थान 'अनाहत चक्र' में माना गया है। नवरात्र के चौथे दिन योगीजन इसी चक्र में अपना ध्यान लगाते हैं। मां कूष्मांडा का निवास सूर्य लोक में है। उस लोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके स्वरूप की कांति और तेज मंडल भी सूर्य के समान ही अतुलनीय है। कूष्मांडा देवी की आठ भुजाएं हैं, जिनमें कमंडल, धनुष-बाण, कमल पुष्प, शंख, चक्र, गदा और सभी सिद्धियों को देने वाली जपमाला है। मां के पास इन सभी चीजों के अलावा हाथ में अमृत कलश भी है। इनका वाहन सिंह है और इनकी भक्ति से आयु, यश और आरोग्य की वृद्धि होती है। मां कूष्मांडा अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। मां के पूजन से परम पद की प्राप्ति हो सकती है। 

मोक्ष प्रदाता माँ स्कंदमाता🙏


       नवरात्र के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की आराधना करने से भक्त अपने न व्यवहारिक ज्ञान को कर्म में परिवर्तित करते हैं। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, देवी का यह रूप इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का समागम है। जब ब्रह्मांड में व्याप्त शिव तत्व का मिलन इस त्रिशक्ति के साथ होता है, तो स्कंद का जन्म होता है। स्कंदमाता ज्ञान और क्रिया के स्रोत, आरंभ का प्रतीक मानी गई हैं। जातक को सही दिशा का ज्ञान न होने के कारण वह विफल हो जाता है। मां स्कंदमाता की आराधना करने वालों को भगवती जीवन में सही दिशा में ज्ञान का उपयोग कर, उचित कर्मों द्वारा सफलता, सिद्धि प्रदान करती हैं। योगीजन इस दिन 'विशुद्ध चक्र' में अपना मन एकाग्र करते हैं । यही चक्र प्राणियों में स्कंदमाता का स्थान है। स्कंदमाता का विग्रह चार भुजाओं वाला है। ये अपनी गोद में भगवान स्कंद को बैठाए रखती हैं। दाहिनी ओर की ऊपर वाली भुजा से धनुष बाणधारी, छह मुखों वाले (षडानन) बाल रूप स्कंद को पकड़े रहती हैं, जबकि बाईं ओर की ऊपर वाली भुजा आशीर्वाद और वर प्रदाता मुद्रा में रखती हैं। नीचे वाली दोनों भुजाओं में माता कमल पुष्प रखती हैं। इनका वर्ण पूरी तरह निर्मल कांति वाला सफेद है। ये कमलासन पर विराजती हैं। वाहन के रूप में इन्होंने सिंह को अपनाया है। कमलासन वाली स्कंदमाता को 'पद्मासना' भी कहा जाता है। यह वात्सल्य विग्रह है, अतः कोई शस्त्र ये धारण नहीं करतीं। इनकी कांति का अलौकिक प्रभामंडल इनके उपासक को भी मिलता है। इनकी उपासना से साधक को परम शांति और सुख मिलता है। उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं और वह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की ओर बढ़ता है। जातक की कोई लौकिक कामना शेष नहीं रहती। 

तेज और प्रताप बढा़ती माँ कात्यायनी🙏


       माँ कात्यायनी दिव्यता के अति गुप्त रहस्यों की प्रतीक हैं। व्यक्ति का भाग्य उसके आंतरिक अदृश्य जगत से संचालित होता है। वह जगत जो अदृश्य है, हमारी इंद्रिया भी उसका अनुभव नहीं कर सकतीं और जो हमारी कल्पना से परे है। वही जगत मां कात्यायनी के प्रताप से संबंधित है। नवरात्र के छठे दिन मां के कात्यायनी रूप का ध्यान, पूजन करने से भक्त के आंतरिक सूक्ष्म जगत में चल रही नकारात्मकता का नाश होता है और सकारात्मकता का विकास होता है। सुनहरे और चमकीले वर्ण वाली, चार भुजाओं वाली और रत्नाभूषणों से अलंकृत कात्यायनी देवी खूंखार और झपट पड़ने वाली मुद्रा में रहने वाले सिंह पर सवार रहती हैं। इनका आभामंडल विभिन्न देवों के तेज अंशों से मिश्रित इंद्रधनुषी छटा देता है। प्राणियों में इनका वास 'आज्ञा चक्र' में होता है और योग साधक इस दिन अपना ध्यान आज्ञा चक्र में ही लगाते हैं। माता कात्यायनी की एक भुजा अभय देने वाली मुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा वर देने वाली मुद्रा में रहती है। बाईं ओर की ऊपर वाली भुजा में वे चंद्रहास खड्ग (तलवार) धारण करती हैं, जबकि नीचे वाली भुजा में कमल का फूल रहता है। एकाग्रचित और पूर्ण समर्पित भाव से कात्यायनी देवी की उपासना करने वाला भक्त बड़ी सहजता से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कर लेता है। सच्चे साधक को मां कात्यायनी दर्शन देकर कृतार्थ करती हैं। वह इस लोक में रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव को प्राप्त कर लेता है। मां कात्यायनी की सच्चे मन से पूजा करने वाले जातक के रोग, शोक, संताप, भय के साथ-साथ जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। इनकी निरंतर उपासना में रहने वाला जातक परम पद प्राप्त करता है। मां कात्यायनी की उपासना से तेज बढ़ता है और भक्त की ख्याति भी दूर-दूर तक फैल जाती है। मां अपने भक्तों को निराश नहीं करतीं। 

ग्रह-बाधा दूर करती माँ कालरात्रि🙏


       नवरात्र के सप्तम दिन मां कालरात्रि की उपासना से प्रतिकूल ग्रहों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली बाधाएं समाप्त होती हैं और जातक अग्नि, जल, जंतु, शत्रु आदि के भय से मुक्त हो जाता है। मां कालरात्रि का स्वरूप भयानक होने के बावजूद भी वह शुभ फल देने वाली देवी हैं। मां कालरात्रि नकारात्मक, तामसी और राक्षसी प्रवृतियों का विनाश कर भक्तों को दानव, दैत्य, भूत-प्रेत आदि से अभय प्रदान करती हैं। मां का यह रूप भक्तों को ज्ञान और वैराग्य प्रदान करता है। घने अंधेरे की तरह एकदम गहरे काले रंग वाली, सिर के बाल बिखरे रखने वाली माता के तीन नेत्र हैं तथा इनके श्वास से अग्नि निकलती है। कालरात्रि, मां दुर्गा का सातवां विग्रह स्वरूप है। इनके तीनों नेत्र ब्रह्मांड के गोले की तरह गोल हैं। इनके गले में विद्युत जैसी छटा देने वाली सफेद माला सुशोभित रहती है। इनके चार हाथ हैं। मां कालरात्रि का स्वरूप भयानक है, लेकिन वे भक्तों को शुभ फल ही देती हैं। इनका वाहन गधा है। वे अपने भक्तों की रक्षा के लिए हथियार भी रखती हैं। योगी साधकों द्वारा कालरात्रि का स्मरण 'सहस्त्रार' चक्र में ध्यान केंद्रित करके किया जाता है। माता उनके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों की प्राप्ति के लिए राह खोल देती हैं। मां कालरात्रि के पूजन से साधक के समस्त पाप धुल जाते हैं और उसे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। कालरात्रि मां के चार हाथों में से दो हाथों में शस्त्र रहते हैं। एक हाथ अभय मुद्रा में तथा एक वर मुद्रा में रहता है। मां का ऊपरी तन लाल रक्तिम वस्त्र से तथा नीचे का आधा भाग बाघ के चमड़े से ढका रहता है। मां की भक्ति से दुष्टों का नाश होता है और ग्रह-बाधाएं दूर हो जाती हैं। । 

सुख-संपन्नता प्रदाता माँ महागौरी🙏


       शवरात्र के आठवें दिन मां महागौरी की उपासना से भक्त के जन्म-जन्मांतर के पाप धुल जाते हैं और मार्ग से भटका हुआ जातक भी सन्मार्ग पर आ जाता है। मां भगवती का यह शक्ति रूप भक्तों को तुरंत और अमोघ फल देता है। भविष्य में पाप-संताप, निर्धनता, दीनता और दुख उसके पास नहीं फटकते। इनकी कृपा से साधक सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है, उसे अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। माता महागौरी का अति सौन्दर्यवान, शांत, करूणामयी स्वरूप, भक्त की समस्त मनोकामना पूर्ण करता है, ताकि वह अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ सके। कंद, फूल, चंद्र अथवा श्वेत शंख जैसे निर्मल गौर वर्ण वाली महागौरी के समस्त वस्त्राभूषण और यहां तक कि इनका वाहन भी हिम के समान सफेद रंग वाला बैल माना गया है। इनकी चार भुजाएं हैं। इनमें ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपर वाले बाएं हाथ में डमरू और नीचे वाला बायां हाथ वर मुद्रा में रहती है। माता महागौरी मनुष्य की प्रवृत्ति सत् की ओर प्रेरित करके अस्त्र का विनाश करती हैं। माता महागौरी की उपासना से भक्त को अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्व संचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है। महागौरी को शिवा भी कहा जाता है। इनके एक हाथ में शक्ति का प्रतीक त्रिशूल है, तो दूसरे हाथ में भगवान शिव का प्रतीक डमरू है। तीसरा हाथ वरमुद्रा में है और चौथा हाथ एक गृहस्थ महिला की शक्ति को दर्शाता है। 

सिद्धियाँ प्रदान करने वाली माँ सिद्धिदात्री 🙏


       नवरात्र के नौवें दिन मां सिद्धिदात्री के पूजन-अर्चन से भक्त को जीवन में अद्भुत सिद्धि, क्षमता प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरूप पूर्णता के साथ सभी कार्य संपन्न होते हैं। मां सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त होने से सभी लौकिक एवं परलौकिक मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। नवरात्र में देवी की आराधना कर सिद्धि प्राप्त करना जीवन के हर स्तर में संपूर्णता प्रदान करता है। माता दुर्गा अपने भक्तों को ब्रह्माण्ड
की सभी सिद्धियां प्रदान करती हैं। देवी भागवत पुराण के अनुसार, भगवान शिव ने भी इन्हीं की कृपा से सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की कृपा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ और वह लोक में अर्द्धनारीश्वर के रूप में स्थापित हुए। नवरात्र पूजन के अंतिम दिन भक्त और साधक माता सिद्धिदात्री की शास्त्रीय विधि-विधान से पूजा करते हैं। माता सिद्धिदात्री चतुर्भुज और सिंहवाहिनी हैं। गति के
समय वे सिंह पर तथा अचला रूप में कमल पुष्प के आसन पर बैठती हैं। माता के दाहिनी ओर के नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले दाहिने हाथ में गदा रहती है। बाईं ओर के नीचे वाले हाथ में शंख तथा ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प रहता है। नवरात्र के नौवें दिन जातक अगर एकाग्रता और निष्ठा से इनकी विधिवत पूजा करे, तो उसे सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। सृष्टि में कुछ भी प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाता है। देवी ने अपना यह स्वरूप भक्तों पर अनुकंपा बरसाने के लिए धारण किया है। सिद्धिदात्री देवी उन सभी भक्तों को महाविद्याओं की अष्ट सिद्धियां प्रदान करती हैं, जो सच्चे मन और विधि-विधान से मां की आराधना करते हैं। इससे उन्हें यश, बल और धन की प्राप्ति होती है।


🌺🌹🙏जय माता दी 🙏🌹🌺



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