जिसके हृदय में प्रेम उसी के जीवन में सुख

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!! जिसके हृदय में प्रेम उसी के जीवन में सुख !! 

                                                                   


आजकल आपको प्रेम का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा होगा। कोई Attachment कहता है, तो कोई वात्सल्य कहता है, लेकिन असल में यह प्रेम है ही नहीं। प्रेम संसार में होता ही नहीं। यह तो अलौकिक है। वास्तव में प्रेम को हम समझते ही नहीं। प्रेम वह है, जो निस्वार्थ हो, जहां उसके पीछे कोई कारण न हो, कोई चाहत न हो।

जैसा प्रेम आप ईश्वर से करते हैं, दूसरों के साथ क्यों नहीं करते?

इसके पीछे स्वार्थ ही आड़े आता है। हम अक्सर प्रेम को स्वार्थ के साथ जोड़कर देखते हैं। जब तक "मैं"( अहंकार) हैं, तब तक स्वार्थ है। जहां स्वार्थ रहता है वहाँ प्रेम होता ही नहीं और जहां प्रेम होता है, वहाँ स्वार्थ रह ही  नहीं सकता। इसलिए जहाँ स्वार्थ न हो, वहां निःस्वार्थ  प्रेम होता है। 

स्वार्थ कब नहीं होता? 

जब मेरा-तेरा न हो, वहाँ स्वार्थ नहीं होता। जहां मेरा-तेरा है, वहाँ अवश्य स्वार्थ है और जहां मेरा-तेरा है, वहां अज्ञानता है। अज्ञानता के कारण ही 'मेरा-तेरा' होता है। इसलिए जहां 'ज्ञान' हो, वहां 'मेरा-तेरा' नहीं होता। 

प्रेम संसार की सबसे अनमोल वस्तु है। 

कबीर ने भी कहा है- 

पोथी पढ़ि -पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े  सो पंडित होय। 

मात्र ढाई अक्षरों में ही दुनिया भर का ज्ञान समाया हुआ है। यदि प्रेम का ढाई अक्षर समझ लें। तो जीवन में महानता को प्राप्त कर लेंगे। प्रेम हो, तो कभी बिछड़े ही नहीं।

आजकल जिसे लोग प्रेम कहते हैं, वह सिर्फ मतलबी प्रेम है, आसक्ति है। प्रेम तो अनासक्त योग है। अनासक्त योग से ही सच्चा प्रेम उत्पन्न होता है। मैं बचपन से ही प्रेम को परिभाषा ढूंढ रही थी। पर मिली नहीं। मैंने सभी पुस्तकें देखी, सभी शास्त्र पढ़े, पर प्रेम की परिभाषा कहीं नहीं मिली। फिर मैंने कबीर की पुस्तक पढ़ी, वहां मुझे मिली सही प्रेम की परिभाषा। वह कहते हैं- 

घड़ी चढ़े, घड़ी उतरे, वह तो प्रेम न होय, 

अघट प्रेम ही हृदय बसे, प्रेम कहिए सोय। 

अर्थात् सच्चा प्रेम वह है, जो चढ़े नहीं, घटे नहीं, हर स्थिति में समान रहे। 

ऐसा प्रेम ज्ञानियों का होता है, जो कम-ज्यादा नहीं होता। ऐसा प्रेम पूरे विश्व के लिए होता है, सबके लिए एक समान होता है। यही प्रेम परमात्मा का रूप है और यही सबसे सच्चा प्रेम है।

लोगों का प्रेम  जो घटता-बढ़ता रहता है, वह आसक्ति, निरी आसक्ति है। सच्चा प्रेम हमेशा समान रहता है, चाहे कैसी भी परिस्थितियां क्यों न आए, प्रेम में कोई बदलाव नहीं आता  है। जहां सच्चा प्रेम होगा, वहां झगड़ा-लड़ाई, दुख, कष्ट होगा ही नहीं, वहां तो सिर्फ प्रेम होगा, सौहार्द और खुशी होगी, और जहां यह सब है, वहीं असल जीवन है। जहां प्रेम नहीं, वह जीवन जीवन नहीं।


वास्तव में, प्रेम में ही पूरी सृष्टि समाई हुई है। इस सृष्टि का कण-कण, पशु पक्षी पेड़-पौधे मनुष्य या प्रकृति का हर एक अंश, सभी एक-दूसरे से जिस डोर से जुड़े हुए हैं, वह प्रेम ही है। जहां प्रेम का डोर टूटा, वहा कलह, हिंसा आपदा, झगड़ा-लड़ाई शुरू। इसीलिए प्रेम को समझने और उसे सही अर्थों में जीवन में जगह देने से ही जीवन सुखमय हो सकता है।


लेखिका :- कायस्थ शिवांगी 

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