सती प्रथा|History of Sati Pratha

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सती प्रथा

नमस्कार दोस्तों मै शिवांगी श्रीवास्तव आपके लिए सती  प्रथा के विषय में कुछ अपने और अलग अलग आर्टिकल जो की सरकारी साइट्स से लिया है आप लोग इस आर्टिकल को पढ़ कर बताये क्या ये आपके लिए उपयोगी है? 

रूप कंवर सती कांड (Roop Kanwar Sati Case)

          दोस्तों! बात है साल 1987 की। जब राजस्थान के सीकर जिले (District) में बसे Deorala गाँव से आई एक खबर ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया। हम बात कर रहे है रूप कंवर केस की। जो हमारे देश का अंतिम Reported केस था। 




          दरअसल जनवरी 1987 में Roop Kanwar की शादी मालसिंह से हुई, और शादी के कुछ आठ महीनों बाद मालसिंह की मृत्यु हो गई। पति के अंतिम संस्कार के दिन Roop Kanwar दुल्हन की तरह सजकर सती होने के लिए तैयार थी। Roop के सती होने की तरह फैलने लगी और देखते ही देखते हजारों लोगों की भीड़ वहाँ जमा हो गई। 4 सितम्बर 1987 में राजस्थान में हजारों की भीड़ के बीच मात्र 18 साल की Roop Kanwar अपने पति की Death Body के साथ जला दी गई, और वहाँ मौजूद लोगों में से किसी ने भी इसे रोकने की कोशिश तक नहीं की। कुछ मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक गाँव वालो का कहना था कि, सती होना रूप का निजी फैसला था। पर आज भी उस भयानक हादसे के 36 साल बाद भी इस बात की पुष्टि करना न मुमकिन सा हो गया है। 

दरअसल बात यही पर खत्म नही हुई और इस घटना का जबरदस्त महिमामंडन किया गया और जहाँ रुप कंवर अपने पति की चिता के साथ जलाई गई वहाँ एक स्थानीय मंदिर भी बना दिया गया।

रूप कंवर के सती होने के कुछ दिनों बाद लगभग 2 लाख लोगों की भीड़ इस मंदिर में पूजा करने के लिए इकट्ठी हुईं। धीरे-धीरे सती की ये आग राजस्थान सरकार से होते हुए हाईकोर्ट तक पहुचीं, मगर नतीजा कुछ खास नहीं निकला। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने इस घटना और राज्य सरकार की भारी आलोचना की। आखिरकार सीएम हरिदेव जोशी को अपने पद से इस्तीफा भी देना पडा़। 

जब इस घटना के तहत तक पहुंचने की कोशिश की जा रही थी।तब एक और चौका देने वाली बात सामने आई, कि Deorala गाँव में यह सती का पहला मामला नही बल्कि तीसरा मामला था। 

दोस्तों रूप कंवर के घटना के बाद राजस्थान सरकार ने 'सती निषेध अधिनियम, 1987 (Sati Prohibition Act, 1987) लागू किया। 

दोस्तों! आपकी जानकारी के लिए बता दे, कि इस बीच 1947-1987 तक सती होने या इसके लिए प्रयास करने के 28 मामले भारत में दर्ज किए गए। रूप कंवर के मामले को आखिरी सती केस माना जाता है। हालांकि इसके बाद भी कुछ 24 लड़कियों ने सती होने की कोशिश की। जिन्हें पुलिस आखिरी वक्त पर रोकने में कामयाब रहीं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है, कि आज 21वीं सदीं में भी कही न कही इसके  निशान देखने को मिल जाते हैं। 

हाल ही में मई 2023 में गुजरात की संगीता ने साबरमती नदी में कूद कर आत्महत्या कर लिया, और अपने सुसाइड नोट में कारणों का खुलासा किया कि सास-ससुर उसपर सती होने के लिए दबाव डाल रहे थे। इस तरह संगीता की कहानी बयां कर रही है कि किस तरह आज भी 'सती प्रथा' की धुधंली छाप आज भी हमारे समाज में देखने को मिल जाती है। 


दोस्तों! अब हम जानेंगे कि 'सती प्रथा' क्या है? इसकी शुरुआत कहाँ से हुई और इसको किस तरह से भारत से समाप्त (Abolish) किया गया। तो चलिए बिना देर किए जानते है। 

'सती प्रथा' का आरंभ व अंत (How 'Sati Pratha' Started and Ended ?) 

दोस्तों! 'सती' शब्द संस्कृति भाषा के 'सत्य' शब्द से निकला है, जिसका मतलब होता है वफादार और सच्ची पत्नी, और इसका तकनीकी नाम सहगमन (Sahagamana)‍ या सहमरना (Sahamarna) भी है। 

अब अगर दुनिया की पहली सती होने की घटना की बात करे तो हमें मानव लोक से देवलोक तक का सफर तय करना पड़ता है। दरअसल सती देवी उमा को कहा जाता है। जो भगवान् शिव की पहली पत्नी थी। ऐसी मान्यता है, कि 'सती प्रथा' का आरंभ (Origin) भी यही से हुआ। माना जाता है, कि माता उमा के पिता प्रजापति दक्ष ने जब उनके पति भगवान् शिव को ही काफी ज्यादा अपमानित किया तो माता उमा ने अपनी योगिक शक्ति से अग्नि को प्रकट कर खुद को अग्नि के हवाले कर दिया। हालांकि काफी इतिहासकार इसे 'सती प्रथा' का Origin (आरंभ) नहीं मानते, क्योंकि 'सती प्रथा' के अनुसार कोई भी स्त्री सती तभी होती है जब उसके पति की मृत्यु हो चुकी होती है। 

दोस्तों! बात करें 'सती प्रथा' की धार्मिक स्वीकृति की तो सबसे प्राचीन वेद, यानि कि ऋग्वेद में 'सती प्रथा' का कही भी कोई जिक्र नहीं किया गया है। 

 वही ऋग्वेद में एक श्लोक 👇👇

"इ॒मा नारी॑रविध॒वाः सु॒पत्नी॒राञ्ज॑नेन स॒र्पिषा॒ सं वि॑शन्तु । 
अ॒न॒श्रवो॑ऽनमी॒वाः सु॒रत्ना॒ आ रो॑हन्त॒ं जन॑यो॒ योनि॒मग्रे॑ ॥"

इतिहासकारों के बीच काफी चर्चा का विषय बना हुआ रहता है। इस श्लोक के मुताबिक विधवा को अपने जीवन में अग्रे यानि कि आगे बढ़ने के लिए कहा गया है। दरअसल इस श्लोक के आखिरी शब्द अग्रे की व्याख्या मध्यकाल में कुछ पुजारियों द्वारा अग्नि (Fire) यानि की आग के रूप में की गई, और इससे 'सती प्रथा' को एक वैदिक प्रथा दिखाने की कोशिश की गई। मगर मैक्स मूलर ने इस गलत व्याख्या का खुलासा कर दिया। इसी तरह अथर्ववेद के श्लोक नम्बर 18.3.1 में 'अपने पति की दुनिया को चुनना' वाक्यांश का अर्थ कुछ जानकारों ने 'सती प्रथा' से जोड़ा है मगर इसका 'सती प्रथा' से किसी भी तरह का सीधा संबंध नही पाया गया। 

वेदों से आगे बढ़े तो हिन्दू धर्म पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालने वाले धार्मिक ग्रंथ मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति किसी में भी 'सती प्रथा' का उल्लेख नहीं मिलता। यहाँ तक कि इसके प्रमाण रामायण में भी देखने को नहीं मिलता। इतिहासकार रामशरण शर्मा ने रामायण के बारे में कहा कि भगवान् राम के वनवास के दौरान उनके पिता राजा दशरथ के मौत और युद्ध में रावण की मौत पर न तो भगवान् राम की माता कौशल्या ने 'सती प्रथा' को अपनाया और न ही रावण की पटरानी मंदोदरी ने। हालांकि महाभारत काल में सती होने की एक घटना का वर्णन मिलता है। महाभारत में राजा पांडु के मरने के बाद उनकी दूसरी पत्नी रानी मादरी के सती होने का जिक्र है, परन्तु इस घटना को लेकर जानकारों में काफी मतभेद है। 

माना जाता है कि इस भाग को महाभारत में काफी बाद में जोड़ा गया। इन ग्रंथों से आगे बढ़े तो छठी शताब्दी ईसा पूर्व से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक भारत में हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म के बीच लगातार शीत युद्ध चलता रहा। मगर इस बीच किसी भी बड़े बौद्ध भिक्षु द्वारा 'सती प्रथा' का आलोचना किए जाने का जिक्र इतिहास में नहीं मिलता। जाहिर है, अगर उस समय ये प्रथा प्रचलित होती तो बौद्ध धर्म द्वारा इसका इस्तेमाल हिन्दू धर्म की आलोचना करने में जरूर किया जाता। ऐसे ही तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत आए ग्रीक यात्री मेगस्थनीज द्वारा भी 'सती प्रथा' का कही भी जिक्र नहीं मिलता। इससे यह बात साफ है, कि हमारे देश में 'सती प्रथा' मौर्य काल तक तो प्रचलित ही नही थी। इतिहास के पन्नों में इसका पहला ठोस सबूत पांचवीं सदीं में मिलता है। इतिहासकार एलेक्स माइकल्स के मुताबिक पहला शिला लेख नेपाल में पाया गया। जो 463 ईसवीं का है। उसके बाद साल 510 ईसवीं का शिला लेख भारत के मध्यप्रदेश में पाया गया। 

मध्यप्रदेश में मिला गुप्त काल का ऐरण्य शिला लेख भारत में 'सती प्रथा' का पहला अभिलेख या साक्ष्य माना जाता है। इसमें राजा भानूगुप्त के सेनापति गोपराज की ऐरण्य युद्ध में मृत्यु के बाद उनकी पत्नी के सती होने का जिक्र है। इसी तरह देश के दक्षिणी हिस्से में त्रिरूआंग्लाडु पत्रों में 'सती प्रथा' का शिला लेख या साक्ष्य पाया गया। इसका समय दसवीं शताब्दी के आसपास का है। इस शिला लेख में राजेन्द्र चोल प्रथम की दादी वनवनवा देवी को अपने पति की मृत्यु के बाद सती होने का जिक्र किया गया है। 

दसवीं सदी में भारत आये एक ईरानी यात्री अलबरूनी ने लिखा है, कि 'भारत में सती होना अनिवार्य नही था, बल्कि यह विधवा के इच्छा के मुताबिक था।' इसके बाद चौदहवीं सदीं में भारत आए मोरक्को यात्री इब्नबतूता ने अपनी भारत यात्रा के दौरान भारत में तीन सती होने की घटना देखने का दावा किया। 'सती प्रथा' को अगर टाइम लाइन की मदद से समझें तो सती होने के ज्यादातर मामलें हमारे देश में इस्लामिक हमलें के दौरान देखें गए। 

देश के जानेमाने इतिहासकार रोशन दलाल का कहना है, कि भारत में 'सती प्रथा' पांचवीं सदीं से दसवीं सदी के बीच धीरे-धीरे विकसित होती गई। शुरुआत में यह प्रथा केवल उच्च वर्गों में खासकर राजपूतों तक ही सीमित थी। बाद में समय के साथ इसे ब्राह्मणों और कईं दूसरी योद्धा जातियों ने भी अपनाया। माना जाता है, कि इस्लामिक आक्रमण और अत्याचार के चलते 'सती प्रथा' का विकास हुआ, और 'जौहर प्रथा' अस्तित्व में आई। जौहर प्रथा में युद्ध क्षेत्र में पति के मरने के बाद इस्लामिक अत्याचार और सामूहिक बलात्कार से बचने के लिए विधवा महिलाएँ अपने आप को एक साथ आग के हवाले कर दिया करती थी। 

जौहर का सबसे पहला सबूत 711 ईसवीं में मिलता है। जब मोहब्बत बिन कासिम के द्वारा भारत पर पहला इस्लामी हमला हुआ था। इस युद्ध में सिंध के राजा दाहिर की अरूर युद्ध में मृत्यु हो गई। राजा दाहिर की पत्नी रानी बाई ने कासिम की सेना के साथ कुछ महीनों तक संघर्ष किया। मगर अपनी हार देखते हुए, उन्होंने राजघराने की बाकी महिलाओं के साथ भारत का पहला जौहर किया। जबकि राजा दाहिर की दूसरी पत्नी और उनकी दो बेटियां सूर्या देवी और प्रमिला देवी को कासिम द्वारा पकड़ लिया गया और उन्हें सेक्स स्लेव्स की तरह इस्तेमाल किया गया। इसी घटना के बाद हिन्दू महिलाओं के द्वारा अपने गौरव और सम्मान की रक्षा के तौर पर जौहर की आग देश के कई हिस्सों में जलाई गई। जैसा कि चौदहवीं सदीं में अलाउद्दीन खिलजी के हमले के बाद चित्तौड़ गढ़ में रानी पद्मावती का जौहर और उत्तरी कर्नाटक में तुगलक के हमले के बाद काम्पिली साम्राज्य का जौहर। इसके बाद देश के हर एक कोने में विधवाओं और रानियों ने पति की मृत्यु के बाद सती होने के चलन को अपना लिया। 

इतना ही नही सती और जौहर करने वाली महिलाओं उच्च सम्मान, महिमामंडन और देवी का स्थान भी दिया जाने लगा। यही कारण है, कि अहिल्या बाई होलकर जिन्हें हमारे देश में नारीवाद का संकेत माना जाता है। उन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद अपने पूरे साम्राज्य को अकेले संभाला था। पर वो भी अपनी बेटी मुक्ता बाई होलकर को सती होने से नही रोक पाई। 

इसी तरह सिक्खों के गुरु अमरदास साहब ने 'सती प्रथा' का विरोध किया। मगर साल 1839 में राजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनकी चार रानियों ने खुद को 'सती प्रथा' की आग में झोक दिया। इस तरह उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश भारत में 'सती प्रथा' के जितने मामले उभरकर सामने आये। उतने प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय इतिहास में देखने को नहीं मिले। 

उमा नारायण अपनी किताब "डिस्लोकेटिंग कल्चर" में लिखती है, कि 'औपनिवेशिक युग में बंगाल में 'सती प्रथा' का दबदबा बाकी भारतीय क्षेत्रों से ज्यादा देखा गया।' इसके लिए तीन कारक जिम्मेदार रहें। पहला बंगाल के लोगों का ये मानना, कि 'सती प्रथा' वेदों के अनुरूप सही है, दूसरा हिन्दू विधवाओं की सम्पत्ति को हथियाने के लिए उन्हें जबरदस्ती सती करना और तीसरा अठारहवीं सदीं के बंगाल अकाल के बाद गरीबी और भुखमरी से बचने के लिए कईं विधवाओं द्वारा 'सती प्रथा' को बढ़ावा दिया जाना। सती के बढ़ते मामलों को देखते हुए ब्रिटिश राज ने 1815-1824 तक एक सर्वे कराया। इसमें दस साल में पूरे देश में सती होने की घटनाओं की रिकॉर्ड बनाया गया। 

रिकॉर्ड में सामने आया कि दस सालों में तकरीबन 6000 से ज्यादा महिलाएँ सती की इस आग में झुलसा दी गई। हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना था कि अंग्रेजों द्वारा सती मामलों की संख्या को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। इसका मकसद भारत के लोगों को हिंदू धर्म (🕉) से कैथोलिक धर्म (✝️) में बदलना था। दरअसल इस सोच की वजह यह थी, कि इस सर्वे को करने से लेकर रिपोर्ट तैयार करने तक का काम किसी ब्रिटिश अधिकारी को न देकर एक ईसाई मिशनरी संगठन को दिया गया था। तकरीबन इसी समय इवेंजिलिकल मूवमेंट की शुरुआत हमारे देश में बंगाल के इलाके से ही हुई थी। इस आंदोलन का मकसद भारत वासियों को वेदों से बाइबिल की ओर ले जाना, यानि कैथोलिक धर्म में परिवर्तित करना था। 

दोस्तों! अब तक हमनें जाना 'सती प्रथा' के शुरूआत से लेकर इसके पूरे देश में फैलने तक की घटना को। अब जानेंगे, कि भारत के उन रियासतों और हस्तियों के बारे में जिनके द्वारा सती जैसी कुप्रथा को समाज से मिटाने के लिए संघर्ष किया गया। 

ब्रिटिश राज के सर्वे के मुताबिक उन्नीसवीं सदी में 'सती प्रथा' अपने चरम पर थी। मगर हैरानी की बात तो यह है, कि इसे खत्म करने की कोशिश मध्यकाल के तुगलक साम्राज्य में ही शुरू हो गई थी। तब सती के मामले देश में काफी कम थे। मोहम्मद बिन तुगलक पहला मुस्लिम शासक बना, भारत में 'सती प्रथा' पर बैन लगाया, और सती होने के लिए विधवा को लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया। इसके बाद मुगल शासक हुमायूँ और अकबर ने भी 'सती प्रथा' पर रोक लगाई। मगर वे भी अपनी इच्छा से सती होने वाले को रोकने में असफल रहें।
 



जाॅन स्ट्रैटन हॉले ने अपने किताब "SATI the blessingblessing and curse, the burning of wives in INDIA" में लिखते है, कि मुगल साम्राट अकबर ने विधवाओं को जानबूझकर सती होने से रोकने के लिए उपहार और जमीन भी ऑफर करने का प्रस्ताव रखा था। मुगल बादशाह जहाॅगीर और औरंगजेब ने भी सती को बैन किया। पर उसे शक्ति से लागू करने में नाकामयाब रहे। इसके अलावा महाराजा शिवाजी राजे भी 'सती प्रथा' के बड़े विरोधी माने जाते थे। इन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद अपनी माता जीजाबाई को सती होने से रोका था। 

वही पुर्तगाली गर्वनर अल्फांसो डी अल्बुकर्क यूरोपीय गवर्नर माना जाता है, जिसने 1515 में गोवा में 'सती प्रथा' को खत्म किया था। हालांकि पूरे देश में 'सती प्रथा' को खत्म करने में सबसे बड़ा योगदान राजाराम मोहन राय का माना जाता है। दरअसल बात 1811 की है, जब राजाराम मोहन राय के बड़े भाई जगमोहन राय की मृत्यु हो गई और उनकी पत्नी को सती बनाकर जबरन पति के साथ आग के हवाले कर दिया गया। इस घटना ने राजाराम मोहन राय के दिल और दिमाग पर गहरी चोट की। इसके बाद उन्होंने ठान लिया, कि इस बुरे प्रथा को हमारे देश से मिटाना बेहद जरुरी है। उन्होंने समस्त हिन्दू ग्रंथों को पढ़ना शुरू किया और पाया, कि किसी भी हिन्दू ग्रंथ में 'सती प्रथा' का कही कोई जिक्र नहीं था। 

इसके बाद उन्होंने कैथोलिक मिशनरियों के साथ मिलकर भारत में लोगों को 'सती प्रथा' के खिलाफ जागरूक करना शुरू किया। राजाराम मोहन राय और उनके साथी मिशनरियों ने गवर्नर बिलियम बेंटिक से 'सती प्रथा' खत्म करने की गुहार लगाई। और आखिरकार 1829 में सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम पूरे देश में लागू हुआ। इसके बाद 'सती प्रथा' को हमारे देश में अवैध घोषित कर दिया गया। 

कुल मिलाकर कहें तो 'सती प्रथा' हमारे वेदों और धार्मिक ग्रंथों में कहीं नहीं मिलती। अगर मिलती है तो कुछ लोगों की दकियानूसी सोच में। दरअसल कुछ लोगों का मानना है, कि एक स्त्री का आधार और अंत उसके पति के साथ ही है। 

आज हमारे समाज से ये कुप्रथा समाप्त हो गई है। पर आज भी हमारे समाज में दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, बालविवाह जैसी कई कुप्रथाएं अस्तित्व में है। इनका आधार भी सिर्फ हमारी छोटी सोच है ना कि ग्रंथ। 

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