दोस्तों भारतीय इतिहास की बहुत सी रानियों को आप जानते होगें फिर चाहे वह कश्मीर की रानी दिद्दा (Queen Didda) हो, दिल्ली सल्तनत की रजिया सुल्तान या फिर झासी की रानी लक्ष्मीबाई। भारतीय इतिहास अनेकों रानियों व महारानियों और उनके अद्भुत जीवन गाथा की गाता है, लेकिन एक रानी ऐसी भी है जिनकी कहानी इतिहास के पन्नों में कहीं दबी रह गई। इनके बारे में शायद हम ज्यादा नहीं जानते हैं, आज की कहानी एक ऐसी ही रानी की है जिनके सम्मान में प्रसिद्ध कवियत्री (Famous poet ) Joanna Baillie ने 1849 में लिखा था कि.... "
In latter days from Brahma came,
To rule our land, a noble dame,
Kind was her heart and bright her fame,
Ahilya was her honoured name,"
तो आइये आज इन्हीं forgotten queen की एतिहासिक कहानी को जानते है महारानी अहिल्याबाई होल्कर के नाम से जाना जाता है।
महारानी अहिल्याबाई की जीवनी:-
महारानी अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को जमखेड़ के चोंडी गाँव में हुआ था, जो आज महाराष्ट्र के बीड़ राज्य में स्थित है। महारानी अहिल्याबाई के पिता मांकोजी राव शिन्दे गाँव के पाटिल यानि मुखिया हुआ करते थे। उस समय लडकियों को पढ़ने-लिखने का प्रचलन नहीं था, लेकिन फिर भी मांकोजी राव शिन्दे ने अहिल्याबाई को घर पर ही पढ़ना-लिखना सिखाया। अहिल्याबाई का जन्म किसी राजघराने में नहीं हुआ था। फिर एक महारानी बनने का इनका सफर कैसे शुरू हुआ। इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। बात 18वीं शताब्दी की है, औंरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों की शक्ति कम होने लगी थी, और मराठों का प्रभुत्व बढ़ रहा था। मराठों के नरेश सतारा में रहते थे। लेकिन वे केवल नाम के राजा थे, असल में सारी शक्ति प्रधानमंत्री यानि पेशवा के हाथों में थीं। जो पुणे से शासन करते थे। पेशवा की आज्ञा से मराठा सरदार दक्षिण की सीमा पार कर उत्तर पर भी अधिकार जमा रहे थे।
मालवा और राजस्थान के अनेक राज्य मराठा सेना ने जीत लिए थे। इनमें से कुछ राज्य पेशवा बाजीराव ने अपने सरदारों को जागीरों के रूप में दे दिए, और इन्हीं में से एक थे मल्हारराव होल्कर। जिन्हें 1730 में मालवा की जागीर मिली। उन्होंने ने इंदौर को अपनी राजधानी बनाया और स्वतंत्र होल्कर राज्य की स्थापना की। उनके एकमात्र पुत्र थे खांडेराव। खांडेराव पिता जैसे पराक्रमी नहीं थे और ना ही उनकी राज-काज में अधिक दिलचस्पी थी। इसलिए मल्हारराव ऐसी पुत्रवधू चाहते थे जो उनके बाद उनके पुत्र और होल्कर राज्य दोनों को संभाल सकें।
एक बार एक मुहीम से वापस आते समय उन्होंने चौंडी ग्राम में पड़ाव डाला। शाम का समय था गाँव के शिव मंदिर में आरती हो रही थी, मल्हारराव कुछ समय के लिए वही ठहर गए। आरती एक सात से आठ साल की कन्या कर रही थी, जिसके मधुर स्वर ने मल्हारराव का मन मोह लिया। उसे देखकर मल्हारराव सोचते है कि कितनी प्यारी बालिका है। इतनी छोटी सी उम्र में चेहरे पर कैसी शान्ति और कितना तेज है। मल्हारराव पास खड़े एक व्यक्ति से पूछते है कि ये बच्ची कौन है? तो वह कहता है कि आप परदेशी मालूम पड़ते है जो हमारी अहिल्या को नहीं जानते। ये हमारे पटेल (मुखिया) मांकोजी राव सिंदे की बेटी है अहिल्याबाई। इतना सुनते ही मल्हारराव पटेल मांकोजी राव सिंदे से परिचय करने के लिए आगे बढ़ते है। मांकोजी राव सिंदे को मल्हारराव जब अपना परिचय देते है तो वे कहते है कि आपका नाम किसने नहीं सुना है। बड़े भाग्यशाली है हम कि आप हमारे गाँव में पधारे है और उन्हें रात्रि का अतिथि बनाने का न्यौता देते है। मल्हारराव तुरंत ही उनका निमंत्रण स्वीकार कर लेते है।
इसके बाद मांकोजी राव सिंदे अहिल्याबाई को अपने पास बुलाते है और उन्हें पेशवा के दाहिने हाथ कहे जाने वाले मल्हारराव होल्कर को प्रणाम करने को कहते है। मल्हारराव को वो अहिल्या इतनी भा गईं कि वो उसे अपने पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव मांकोजी राव सिंदे के सामने रखते है। जिसे मांकोजी सहज ही स्वीकार कर लेते है, और इस तरह आठ वर्ष की आयु में अहिल्याबाई गाँव की एक साधारण कन्या से होल्कर राज्य की राज रानी बन जाती है। लेकिन अहिल्याबाई का जीवन इतना सरल नहीं होने वाला था। आने वाले समय में उन्हें जीवन के सबसे कठिन त्रासदी झेलनी थी।
आइये जानते है क्या थी वो त्रासदी:-
भाग्य के साथ अहिल्याबाई का मिलन (Her trsty with Destiny)
मित्रों पिता के यहाँ अहिल्याबाई को पढ़ने-लिखने की शिक्षा मिली थी, और धर्म ग्रंथों के प्रति श्रद्धा और बड़ों की सेवा का संस्कार भी। ससुराल में अहिल्याबाई ने अपने मधुर व्यवहार से सास-ससुर और परिवार के सभी लोगों का मन जीत लिया। सास की देखरेख में अहिल्याबाई ने घर-परिवार और ससुर के प्रोत्साहन से राज-काज की सारी जिम्मेदारी संभाल ली। इस बीच अहिल्याबाई को एक पुत्र मालेराव होल्कर और एक पुत्री मुक्ताबाई होल्कर भी हुई।अहिल्याबाई के संपर्क से खांडेराव के स्वभाव में भी अंतर आया, और वे भी राज्य के कार्यों में दिलचस्पी लेने लगे।
योग्य शासन प्रबंध से प्रजा सुखी और समृद्ध थी, और अहिल्याबाई के तो सभी प्रसंशक थे। लेकिन तभी 1754 में भरतपुर के महाराजा सूरजमल जाट के खिलाफ कुभेंर के युद्ध में खांडेराव वीरगति को प्राप्त हो जाते है, और मात्र 29 वर्ष की आयु में अहिल्याबाई विधवा हो जाती है। अहिल्याबाई अपने पति की मृत्यु के बाद सती होना चाहती थी। लेकिन उनके ससुर मल्हारराव होल्कर ने रोकते हुए कहा कि "नहीं बेटी अब तू ही मेरा बेटा है अगर तू भी चली जायेगी तो मुझे कौन संभालेगा? तेरे बिना हम कही के नहीं रहेंगे। ये राजपाट तेरा है। अब तक तुझे अपना बेटा समझ कर ही मैंने तुझे सब सौप रखा था। तू रहेगी तो मैं समझूँगा कि मेरा खांडेराव अभी जिंदा है। तुझे देखकर मैं अपना सारा दु:ख भूल जाऊंगा। इसलिए बेटी सती होने की बात भूल जा।" मल्हारराव की ऐसी अवस्था देख अहिल्याबाई ने सती होने का विचार त्याग दिया और पूरी कर्मठता से होल्कर राज्य की बागडोर अपने हाथों में संभाल लिया।
कुछ समय बाद 1766 में मल्हारराव भी चल बसे। ऐसी परिस्थिति में अहिल्याबाई ने अपने पुत्र मालेराव को गद्दी सौपी। लेकिन मालेराव ज्यादा समय के लिए राज नहीं कर पाए। राजगद्दी संभालने के कुछ समय बाद ही मार्च 1767 में मालेराव ऐसे बीमार पड़े कि फिर उठ ना सके, और अप्रैल 1767 में मात्र 22 वर्ष की आयु में उनका स्वर्गवास हो गया। इकलौते बेटे की मृत्यु का अहिल्याबाई को अपार दुख हुआ। लेकिन प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य का ध्यान कर अहिल्याबाई ने अपने आंसू पोछ लिए और राज-काज में लग गई। इसी समय होल्कर राज्य के एक पुराने अधिकारी चंद्रचूड़ ने पेशवा के विश्वासपात्र रघुबा को पत्र लिखा और होल्कर राज्य इस समय स्वामी विहीन है। तुरंत आइये बड़ा अच्छा मौका है। अहिल्याबाई को इस षड्यंत्र का पता लग गया, और उन्होंने घोषणा करवा दी कि होल्कर राज्य की संपूर्ण सत्ता अपने हाथ में ले ली है।
आइये अब एक किस्सा जानते है अहिल्याबाई के विवेक की। कि कैसे अहिल्याबाई ने बिना तलवार चलाये पेशवा को मात दे दी।
पेशवा के हमले का मुकाबला (Countering peshwa's Assault):-
मित्रों अहिल्याबाई ने जब सत्ता अपने हाथ में ली तो होल्कर सेना और सेनापति तुकोजी राव होल्कर ने पूरा सहयोग किया। तुकोजी राव मल्हारराव के गोद लिए हुए पुत्र भी थे। इसके बाद भी इनका खुद राजगद्दी पर अधिकार जताने की जगह अहिल्याबाई का सहयोग करना दिखाता है। कि अहिल्याबाई में सच में योग्यता थीं। इससे पहले अहिल्याबाई अपने ससुर मल्हारराव के समय में ग्वालियर जैसी सैन्य अभियान (military expedition) का नेतृत्व कर चुकी थी। 1765 में उन्होंने ग्वालियर के पास स्थित गोहाढ किले पर कब्जा किया था। राजमाता अहिल्याबाई ने अस्त्र-शस्त्र और राशन इकट्ठा करना शुरू कर दिया। पड़ोसी राज्यों को संदेश भेजे। पेशवा माधवराव के पास भी सारी जानकारी भेज दी गई। सभी ने उनकी सहायता करने का आश्वाशन दिया। पेशवा ने भी उनके ही पक्ष का समर्थन किया। अहिल्याबाई ने एक नवीन प्रयोग भी किया। उन्होंने स्त्रियों की एक पूरी सेना तैयार की, और उन्हें अस्त्र-शस्त्र का पूरा प्रशिक्षण भी दिया। अब अहिल्याबाई रघुबा की सेना का मुकाबला करने के लिए पूरी तरह तैयार थी। अहिल्याबाई ने रघुबा को संदेश भेज कर कहा कि "आपकी सेना के क्षिप्रा नदी के इस पार आते ही हमारी तलवार चलेगी। इस बात का ध्यान रख कर ही कदम बढ़ाना। आप सेना के जरिये हमारा राज्य छीनना चाहते है। लेकिन आपकी ये इच्छा कभी पूरी नहीं होगी। आपने मुझे अबला समझा है, पर मैं कैसी अबला हूँ इसका पता आपको रणक्षेत्र में चलेगा। मेरे अधीन महिलाओं की सेना आपका सामना करेगी। मैं हार भी गई तो कोई हसी नहीं उड़ाएगा। लेकिन अगर आप हार गए तो कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे। फिर अबला के ऊपर आक्रमण करने का जो कलंक लगेगा वो कभी नहीं मिट सकेगा। इन सभी बातों का विचार कर लड़ाई का मौका न ही लाए तो ही अच्छा रहेगा।"
रघुबा को जब अहिल्याबाई का यह संदेश मिला तो वे चिंता में पड़ गए। उन्होंने कहा कि ये क्या कोई अबला के स्वर है। ये तो शेरनी है। लेकिन उनके कुछ साथियों ने उन्हें भड़काने की भी कोशिश की। ये कहकर कि आखिर अहिल्याबाई है तो सिर्फ एक अबला स्त्री ही। वो युद्ध में कहीं भी नहीं टिक पायेगी। लेकिन रघुबा समझ चुके थे कि अहिल्याबाई से मुकाबला करने का मतलब अपनी इज्जत खोना ही हुई। इसलिए वे होल्कर राज्य पर कब्जा करने का अपना विचार छोड़ देते है, और अहिल्याबाई को संदेश भेजते है कि वे उनसे लड़ना नहीं चाहते। वो तो सिर्फ अहिल्याबाई के बेटे मालेराव की दुखद मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने इंदौर आना चाहते है। अहिल्याबाई ने जवाब भेजा कि संवेदना प्रकट करने के लिए सेना लाने की क्या जरूरत है। इसके लिए आप अकेले ही पालकी में बैठ कर यहाँ पधारे। होल्कर राज्य आपका स्वागत करेगा।
इस प्रकार अहिल्याबाई ने अपनी सूझबूझ से होल्कर राज्य की रक्षा की, और अहिल्याबाई की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गईं। इसके बाद अहिल्याबाई अपने राज्य की भलाई और उसे मजबूत करने में लग गई।
अहिल्याबाई की कार्य और उपलब्धियाँ (Work and Achievements):-
मित्रों राजमाता अहिल्याबाई ने अपने राज्य से डाकू और पिंडारियों का संकट मिटा दिया। अहिल्याबाई ने अपने विवेक से जंगलों में रहने वाले उन जनजातियों को जो यात्रियों को लूटा करती थीं। उन्हें ही उन मार्गों का संरक्षक बना दिया। इसतरह से भील और गौण जैसी जनजातियाँ अहिल्याबाई के राज्य में शांति से रहने लगती हैं। विद्वानों, व्यापारियों और कारीगरों को भी राज्य की तरफ से संरक्षण दिया गया। सड़कों के दोनों तरफ छायादार वृक्ष लगवाए गए। जगह-जगह कुओं का निर्माण करवाया गया। यात्रियों के लिए विश्राम गृह की व्यवस्था की गई। इसके अलावा अहिल्याबाई इंदौर का राजमहल छोड़ कर तीर्थस्थान महेश्वर के एक साधरण घर में रहने लगी। इस घर के दरवाजे दीन-दुखियों और मुसीबत के मारे लोगों के लिए हमेशा खुले रहते थे। वो सबकी माँ थीं। लोग अपनी सारी परेशानियां और दुख उनसे कहने आते थे। अहिल्याबाई भी परिवार के बड़े-बुजुर्ग की तरह उनकी बातें बड़ी ध्यान से सुनती, और जहाँ तक हो सकता लोगों के कष्ट दूर करने का उपाय करती थी।
अहिल्याबाई की नई राजधानी महेश्वर साहित्यिक, संगीत, कलात्मक और औद्योगिक उपलब्धियों का एक सांस्कृतिक रूप बन गई थी। मराठी कवि मोरोपंत त्र्यंबक पिंगले, शाहीर अनंत बंदी और संस्कृति स्काॅलर कुशालीराम जैसे विद्वान उनके राज दरबार की शोभा बढ़ाते थे। अहिल्याबाई की राजधानी शिल्पकार, मूर्ति कलाकार, कलाकारों के लिए जानी जाती थी। जिन्हें महारानी अहिल्याबाई की तरफ से संरक्षण प्राप्त था। महारानी अहिल्याबाई ने यहाँ वस्त्र उद्योग की भी स्थापना की थी। जो आज अपनी महेश्वरी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। अहिल्याबाई की सबसे बड़ी उपलब्धि तो शायद यही थी कि उनके शासन के दौरान मालवा पर कोई भी आक्रमण नहीं कर पाया। जबकि उस समय पूरे मध्य भारत में सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा था। लेकिन राजमाता अहिल्याबाई के शासन में मालवा स्थिरता और शांति के एक रेगिस्तान की तरह था। अहिल्याबाई ने सिर्फ अपने राज्य की भलाई ही नहीं की। बल्कि अहिल्याबाई ने पूरे भारत में लोकोपकार का कार्य किया।
आइये जानते है कि उनके बारे में
Ahilyabai- A great Philanthropist:-
महारानी अहिल्याबाई धार्मिक कार्यों में बचपन से ही रूचि लेती थी। होल्कर राज्य को स्थायित्व देने के साथ-साथ अहिल्याबाई धार्मिक कार्य में दान-पुण्य भी करती थी। हिमालय से दक्षिण भारत के तीर्थ स्थानों पर अहिल्याबाई ने कुओं, तालाबों और विश्राम गृहों का निर्माण करवाया। इन स्थानों पर अहिल्याबाई ने बहुत से त्योहारों को भी प्रायोजन किया। इसके साथ ही अहिल्याबाई ने कई मंदिरों का मरम्मत एवं पुनरुद्धार किया। बद्रीनाथ, द्वारका, ओंकारेश्वर से लेकर पुरी, गया और रामेश्वरम तक हर एक तीर्थ स्थान पर किसी न किसी रूप में अहिल्याबाई का योगदान रहा है। जिसमें सबसे ज्यादा याद किया जाने वाला है काशी का प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर। जिसे अहिल्याबाई ने 1780 में पुनर्निर्माण और पुनर्स्थापित करवाया। 112 साल पहले यानि 1669 में औरंगजेब ने इसे नष्ट कर दिया था।
इस तरह धर्म पुण्य के लिए कार्य करते हुए अंततः 1795 में अहिल्याबाई का स्वर्गवास हो गया। पर उनकी Legacy जीवित रही।
आइये जानते है कैसे?
Her death and Legacy:-
13 अगस्त 1795 को 70 वर्ष की आयु में इस Warrior Queen का निधन हुआ। यह दुखद समाचार बिजली की तेजी से चारों ओर फैल गया। मालवा का हर व्यक्ति ऐसे अधीर था जैसे उसकी सगी माँ चल बसी हो।
आज कई शताब्दी बाद भी उनकी Legacy अनगिनत मंदिरों, धर्मशालाओं और अनेक ऐसे कार्यों में जिंदा है जिसके लिए अहिल्याबाई ने अपनी पूरी जिंदगी समर्पित कर दी थी। महारानी अहिल्याबाई ने 100 से ज्यादा मंदिर, 30 से ज्यादा धर्मशाला, गरीब खानों और बहुत से घाटों और कुओं का निर्माण कराया था। उनका 28 वर्ष लम्बा शासन आज भी उदार, प्रभावी और आदर्श शासक के रूप में याद किया जाता है।
मित्रों अहिल्याबाई सिर्फ देश के अंदर ही प्रसिद्ध नहीं थी, बल्कि उनकी कीर्ति विदेशों तक फैली। इसलिए उनकी तुलना रशियन क्वीन Catherine the Great, इंग्लैंड की क्वीन एलिज़ाबेथ और डेनमार्क की क्वीन Margaret 1 जैसी Great Leader के साथ की जाती है।
होल्कर राज्य को कठिन समय एक सुयोग्य नेतृत्व, संरक्षण और स्थायित्व प्रदान करने वाली महारानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम सिर्फ मराठों के ही नहीं बल्कि पूरे भारत के इतिहास का एक सुनहरा पन्ना है। अहिल्याबाई ने अपने शौर्य, विवेक और परोपकार से खुद का नाम कुछ उन चंद महिला शासकों में दर्ज करवाया। जिन्होंने न सिर्फ सम्राज्य चलाया। जबकि एक पितृसत्तात्मक समाज में रहते हुए कीर्ति भी हासिल की।

