अपनी रक्षा चाहती है !
हर रोज भरत की भूमि पर,
कोई बाला बलि चढ जाती है।
कभी सड़क पर काट के फेंका,
कभी जला दी जाती है।
जिस माली की बगिया है वो,
उसके आंसू बन जाती है,
हक है उसको भी जीने का,
वो अपनी रक्षा चाहती है।
सबला होकर भी सदियों से,
अबला बनकर रह जाती है,
तन-मन क्षीण हो जाता है,
जब नोंच-मसल दी जाती है।
रुंधा गला पूछे सबसे,
क्या सजा दिलाई पापी को ?
या हाथ कांप गए फिर से,
उस कातिल की फांसी को ।
अब अंतिम सांसों की खातिर,
अपनी आजादी चाहती है,
हर रोज भारत की भूमि पर,
कोई बाला बलि चढ़ जाती है।
🥀🌼🌸🌼🥀
ढलती उम्र
समर्पण भरे प्यार की
एक-एक ईट पर
बनाया था घर,
अपेक्षाओं, उपेक्षाओं के बीच भी
शिकायत नहीं की, खुश थी
उम्र के तमाम पड़ावों से गुजरती,
घर की मैं स्वामिनी अब बूढ़ी हो चली,
दुनियादारी से परिपक्व हो चुके
उन कोमल कंधों में
वही स्नेहिल स्पर्श को ढूंढती
आते-जाते मानो
अजनबी कदमों से आहट
बिस्तर तक सिमटी,
एक अनचाही सी चुप्पी
सांसों में घुल रही,
घर की रौनकें
अपने-अपने कमरों में जा छिपी,
बुला नहीं सकती इसलिए
खांसती हूं बेवजह ही,
तरसती हूं देखने को
और भी तरस जाऊंगी,
वृद्धाश्रम में बच्चों
मैं कैसे रह पाऊंगी?
खाना मत दो
दवा भी मत पूछो,
अकेलेपन के ज्वार से
उफन रही हूं मैं,
मेरे पास बैठो
मुझसे बात करो
जीवन के इस अंतिम पलों में
मेरे प्यारे बच्चों
मुझे यूं तो अकेला मत छोड़ो..........
🥀🌼🌸🌼🥀
अधूरी तस्वीर
यादों के कैनवास पर
उतारी थी एक तस्वीर
दो जोड़ी आंखें
ख्यालों में डूबी
होंठों पर गुलाबी रंग रह गया था भरना
चाहा था अपने होंठ रख दूं होंठों पर
तभी बंद पड़े उस पुराने रेडियो पर
बजने लगा पुराना गीत
और मैं निकल आई
यादों से बाहर
और वो तस्वीर अधूरी रह गई।
🥀🌼🌸🌼🥀
मेरा वो गुलाब छिन गया
मेरा वो गुलाब छिन गया,
जो खिला था कभी-कभी
मेरा प्यारा वक्त छिन गया,
जो मिला था कभी-कभी
रोना तो होता हरदम,
हंसना कभी-कभी
वो प्यारा वक्त खो गया
जो मिला था कभी-कभी....
पथ में पड़ी थी धूल
माथे से लगा लेते
गुजरा था पथिक निर्मल
उसको बता देते...
छीना था जबरदस्ती
खुशियों के मेरे गहने
जान देकर हासिल न
खुशी कर पाए
दुश्मन बड़े हैं जालिम
खुशियों को छीन लाए
गम का चिराग
जलता-बुझता कभी-कभी
चिंगारी अभी है बाकी
जो जलाती कभी-कभी
फूल की हर कली
मुस्कुराकर खिलती कभी-कभी
जब वक्त बुरा आया
यह हालात छिन गए
मुड़कर किसी ने देखा
बादल भी हट गए
इन बादलों से कह दो
बरसें कभी-कभी
मेरा वो गुलाब छिन गया
अब वक्त बुरा मेरा
किसे जाकर बताएं
जो खिला था कभी-कभी...
मेरा वो गुलाब छिन गया........
🥀🌼🌸🌼🥀
रूप-स्वरूप
अद्भुत है ये कृति,
सुनते ही शक्ति,
रूप उभरता है स्त्री का,
और शक्ति,
शक्ति प्रतीक है सत्ता का।
उस सत्ता का,
जो करती है निर्माण,
पोषण और विकास,
नारी रूप शक्ति का,
या सृजनकर्ता का,
बहुआयामी प्रतिभा का ।
पुरुष ने शक्ति को,
स्त्री का वो रूप दिया,
जिसे कहते हैं,
सहचरी और भोग्या,
जानते हैं,
क्या हुआ परिणाम?
परिवारों में विघटन,
रूप हुआ बदरंग।
और यह सत्य भी,
कहां खत्म हुआ,
कि स्त्री केवल,
दिखती है मां।
🥀🌼🌸🌼🥀
हे पथिक...
बांध हिम्मत को डगर चलना पथिक
तज के भय को तू संभलना हे पथिक!
तू राह में बाधाएं पग-पग आएंगी
मुश्किलों से डटकर के लड़ना तू पथिक।
हौसलों को पंख तू देना तनिक
उम्मीदों की खिड़कियां उघाड़ दे।
दीप कुछ आशाओं के जगमग जगा
राह में नित कोशिशें उछाल दे।
अंधकार चाहे हो तू न झेंपना
छाले पड़ें जो पैरों में न तू देखना।
गीत हरदम ही विजय के तू लगा
झुक जाएगा यह आसमां भी देखना।
गिरना संभलना जिंदगी-ए-दस्तूर है
गिरकर जो संभला नहीं मंजिल दूर है।
हारकर तू बैठना न हे पथिक!
राह पर अडिग ही रहना तू पथिक ।
🥀🌼🌸🌼🥀
फूलों ने सिखाया
फूल खिलते हैं मुरझाने के लिए
जिंदगी मिलती है कुछ कर जाने के लिए।
फूलों ने तो खुशबू फैलाई
आपकी जिंदगी तो बेमाइने रही यदि किसी के काम न आई।
फूल चढ़ा भगवान पर या किसी मजार पर
आपकी जिंदगी तो यूं ही गई अपने-अपने काम पर।
फूल खिला तो लोगों ने सराहा क्या
किसी की पीड़ा देख आपका मन अनुलाया।
जियो तो ऐसे जैसे हम अपने नहीं
महको तो ऐसे जैसे फूल बगिया में कहीं।
🥀🌼🌸🌼🥀
वफादारी का तोहफा
मुझको रुलाने वाला, रोता है अकेले में
मुझको जलाने वाला, जलता है अंधेरों में
मेरी रुसवाई पर ठंडक जो तुझे मिलती है
मेरी बद्दुआ जाती है आसमानों के अदालत में
आंखों से हर वक्त आंसू बहती है
मेरी बेवफाई को तूने तौला बेवफाई में
गद्दार वो हैं, जो तेरे चमचे हैं
मैंने हर बात कर दी सच्चाई में,
तू फायदा उठाया मेरी यकीनों का
मैं लगी रही तेरे गम को उठाने में,
तेरे चेहरे की उदासी से तड़पता था दिल
कहकहा लगाता रहा मेरे दुश्मनों की महफिल में
दुआ करती हूं न देखूं ऐ जालिम
तेरे साथ रहती हूं, फिर भी गिनती हूं परायों में
उस तक कैसे पहुंचे पैगाम-ए वफाई मेरी।
🥀🌼🌸🌼🥀
अनमोल नदियां
रहे भू सदा हरी-भरी ।
महके सुमन-सी, रहे खिली-खिली।
वन, उपवन, खेतों से दमके हरी-हरी ।
रहे तरंगिनी कलकल करती जल से भरी भरी।
गंगा, यमुना, सरस्वती भारत की शान है।
सिंधु, नर्मदा, ताप्ति संस्कृति की पहचान है।
गंडक, ब्रह्मपुत्र, सुख-समृध्दि के प्रमाण हैं।
कृष्णा, कावेरी भारत की अमृतधार है।
सतलज, झेलम, साबरमती स्वअस्तित्व की पहचान है।
बेतवा, दामोदर, गोदावरी से जन-जन कृतार्थ है।
कानन, पादप, पहाड़ से इनका आत्मसात है।
धरा गौरवान्वित है इनके आच्छादन से।
सुधा की पुकार है, पूर्णविराम की मांग है।
नदियों के नाले बनने पर लगी लगाम है।
पुनर्निर्माण की अलख जगाने की पुकार है।
कुदरत के गुणों को आत्मसात करने की गुहार है।
प्रकृति से आलिंगन करने की चाह है।
हर दिशा में झूमती डाली, हिलते पत्ते,
हर डाली पर चिड़िया चहके,
हर कोना अब जुगनू से दमके,
हर लड़ाग पर दिखे परिंदे,
हर पहाड़ पर कानन झूमे,
ऐसी अवनी की फरियाद है।
सरिता को सागर से मिलने की चाह है।
खुशहाली को वापस लाने की दरख्वास्त है।
हर नदी को पुनः बनाना तीर्थधाम है।
सरिता से हर समय
बहते रहने का सविनय भाव है।
स्वच्छ, समृद्ध भारत को बनाने की हुंकार है।
महके सुमन-सी, रहे खिली-खिली।
वन, उपवन, खेतों से दमके हरी-हरी ।
रहे तरंगिनी कलकल करती जल से भरी भरी।
गंगा, यमुना, सरस्वती भारत की शान है।
सिंधु, नर्मदा, ताप्ति संस्कृति की पहचान है।
गंडक, ब्रह्मपुत्र, सुख-समृध्दि के प्रमाण हैं।
कृष्णा, कावेरी भारत की अमृतधार है।
सतलज, झेलम, साबरमती स्वअस्तित्व की पहचान है।
बेतवा, दामोदर, गोदावरी से जन-जन कृतार्थ है।
कानन, पादप, पहाड़ से इनका आत्मसात है।
धरा गौरवान्वित है इनके आच्छादन से।
सुधा की पुकार है, पूर्णविराम की मांग है।
नदियों के नाले बनने पर लगी लगाम है।
पुनर्निर्माण की अलख जगाने की पुकार है।
कुदरत के गुणों को आत्मसात करने की गुहार है।
प्रकृति से आलिंगन करने की चाह है।
हर दिशा में झूमती डाली, हिलते पत्ते,
हर डाली पर चिड़िया चहके,
हर कोना अब जुगनू से दमके,
हर लड़ाग पर दिखे परिंदे,
हर पहाड़ पर कानन झूमे,
ऐसी अवनी की फरियाद है।
सरिता को सागर से मिलने की चाह है।
खुशहाली को वापस लाने की दरख्वास्त है।
हर नदी को पुनः बनाना तीर्थधाम है।
सरिता से हर समय
बहते रहने का सविनय भाव है।
स्वच्छ, समृद्ध भारत को बनाने की हुंकार है।
🥀🌼🌸🌼🥀