अम्मा

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यह एक वृद्ध महिला की संवेदनपूर्ण कहानी है, जो उम्र के इस पड़ाव पर शारीरिक व्याधियों के बाद भी घर-परिवार के प्रति अत्यंत सजग, चिंतित और सक्रिय हैं। 


पड़ोस से आती आवाज ने अम्मा के सीली हुई देह में जैसे आंच भर दी। पड़ोस का नन्हा चिल्ला-चिल्ला कर अपनी माँ को बता रहा था कि धूप आ गई। अम्मा हड़बड़ा कर उठ बैठी अम्मा ने उचक कर खिड़की से झांका, धूप खिली हुई थी। भीगे-भीगे से पेड़-पौधें चमक रहें थे। पत्तों पर ठहरी हुई बारिश की बूंदों में तो जैसे लिश्कारा ही उतर आया था। कितने ही दिनों से गुम चिड़ियां आंगन में चुगती हुई फुदक रहीं थी। गीली जमीन से तपती हुई काई की गंध उठने लगी थी और मद्धिम तपिश की छुवन खिड़की से भीतर झांक रही थी। 


बारिश, धुंध और इससे उपजी अवसाद भरी सीलन को चीरकर आज धूप जमीन तक पहुँच ही गई थी। दिन में भर डराने और उदास कर देने वाले घटाटोप अंधेरे की परछाई भी आज बाकी नहीं थी। अम्मा उलस गई, पर जिस तेजी से मन ललका था, शरीर नहीं लपक पाया। तेजी से उठने की कोशिश की तो हड्डियां कड़कड़ा गंई। घुटनों को दबाती हुई अम्मा धीरे-धीरे उठीं और शरीर में फैलती हुई गठिया की शिकायत को नकारते हुए आगे बढ़ने लगी। बहू-बेटे अपने-अपने कामे पर चले गए थे, धूप एक शरारत को तरह उतर आई थी। अब अम्मा घर में अकेली थीं और सब चीजों की ढोकर धूप में रखना अम्मा के लिए बड़ी चुनौती थी। चीजें धूप में रखने से चूक गई तो आज गई हुई धूप जाने फिर कब उतरे। अम्मा चिंतित हो गई। इसी चिंता में चाल कुछ तेज हो गई तो शरीर में ऐसी उमेठन हुई कि अम्मा कराह उठी।  


अम्मा ने सबसे पहले गलगल के आचार का मर्तबान उठाया तो मसालों से लसी गलगल (बड़ा नींबू) की खट्टी नथूनों में समाती हुईं दिमाग तक पहुँच गई। 'चटोरी कहीं की' आचार चुराते देख अक्सर माँ हंसतीं। हंसी अम्मा की पुतलियों में भी उतरी, पर ज्यादा देर टिक नहीं पाई। माँ की याद आते ही आंखें तरल हो गईं। नींबू, मूली और मिर्च के छोटे-छोटे मर्तबान धूप में रखकर जब अम्मा ने अंबियों के आचार वाला बड़ा मर्तबान उठाया तो लचक गईं। मर्तबान भारी था। अम्मा घिसटते-घिसटते धूप तक किसी तरह पहुंचीं और मर्तबान नीचे रखकर दोनों हाथों से कमर दबा ली। कुछ राहत मिली तो अम्मा फिर अंदर चल दीं। धीरे-धीरे तकिये, जूते, चप्पल, चद्दर सब धूप में सुखा दिए तो अम्मा हांफती, कराहती हुईं तख्त पर जा बैठीं और घुटनों को दबाने लगी। 


तभी अम्मा को याद आया कि बहू ने धुले हुए कपड़े पीछे के आंगन में रस्सी पर सुखाए हैं। अम्मा फिर जतन करके उठीं और पीछे वाले आंगन का दरवाजा खोला। सीलन और गीले कपड़ों को मिली जुली गंध नथुनों में समाती चली गई। अम्मा ने झुक गई अपनी कमर को सीधा किया और एक-एक कपड़ा रस्सी से उतारती हुई आंगन के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच गई। फिर पलटकर धीरे-धीरे सामने वाले सामने वाले आंगन में आई और कपड़े सुखाने लगी। 


इस पूरी भागादौड़ी में अम्मा की सांस फूल गई, घुटने जवाब दे गए और कमर टीसने लगी। अम्मा परास्त-सी अपने तख्त पर लेटी ही थी कि अम्मा को फिर याद आया कि बहू ने कपड़े छोटे के कमरे में भी सुखाए थें। छोटे का कमरा ऊपर था और अम्मा अब-तक चला-चली और झुका-झुकी से ही निढाल हो चुकी थी। फिर भी अम्मा हिम्मत करके उठीं और सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ती, सुस्ताने, घुटनें और कमर दबाती हुईं ऊपर तक पहुँच ही गईं। उखड़ती सांस को थोड़ा आसरा दिया और साथ वाले आंगन में झांककर पड़ोस की बहू को पुकारा, जो अपने आंगन की धूप को चीजों से भर रही थी।


बहू ने ऊपर देखा तो अम्मा को देखकर मुस्कुराई। अम्मा आज ऊपर कैसे?' बहू ने पुकार कर पूछा। अम्मा को याद आया कि आज घुटनों ने बड़ा दिया। अम्मा ने टीसते हुए घुटनों को दबाया और बोली, 'क्या कहें बहू। कुदरत भी मरे हुए को ही मारती है। अरे. धूप कुछ देर पहले आ जाती तो बहू को काम पर जाने से रोक देती। पर धूप भी तब आई जब बहू निकाल गई। अब अगर कपड़े-लते न सुखार तो जाने और कितने दिन सीलते रहेंगे।


दीवार का सहारा लेकर खड़ी हुई अम्मा ने बोलते-बोलते ही साथ के आंगन में रखे आचार के मर्तबान गिन लिए, बेडकवर का डिजाइन देख लिया और अन्य चीजों का भी मूल्यांकन कर लिया। बहू ने अम्मा की मर्तबान गिनती हुई नजरों को भांप लिया और तल्ख स्वर में बोली 'कोई क्या बनाए क्या खाए अम्मा। किसी चीज को हाथ ही नहीं लगता। बस स्वाद परतने को थोड़ा-सा जतन कर लेते हैं।' 


अम्मा ने पड़ोसन का तेवर भांपा और मुड़ गई। छोटे के कमरे से कपड़े लेकर सामने वाले आंगन में पहुंची तो असमंजस में खड़ी रह गई। आंगन कुछ इस तरह भरा हुआ था कि एक कपड़ा भर सुखाने की जगह भी नहीं बची थी। अम्मा कुछ देर खड़ी हुई सोचती रहीं और सीधी चढ़ने-उतरने से फूल गए सांस को काबू करने का जतन करती रहीं। फिर जुगत लगाई और खड़ी हुई कार के धूप वाले हिस्से पर कपड़े सुखाने लगीं। कार रंगीन कपड़ों के नीचे छिप गई। काम निबटाकर, थकी हुई अम्मा तख्त पर लेटी तो कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला। जाने कितनी देर बाद अम्मा को चेतना लौटी अम्मा ने बाहर आंगन की तरफ नजर डालीं तो उठ बैठी। बाहर साया पसर  गया था। धूप का तो नामोनिशान भी नहीं था। 'कहीं बरस तो नहीं लिए' सोचते ही अम्मा का मुंह बाहर को आ गया। तेजी से उठने की कोशिश की, पर उठ ना सकीं। कराह कर रह गई। धीरे-धीरे घुटने दबाते और कमर को सहारा देते  हुए अम्मा बाहर आईं तो देखा कि काली बदलिय के टुकड़े आसमान पर जुड़ने लगे हैं। गनीमत रही कि बरसे नहीं। लगभग घिसटते हुए धीरे-धीरे अम्मा जिस गति से सुबह सामान बाहर निकाला था. उसी गति से अब अंदर ढोने लगीं।


तकिए, जूते, कपड़े, मर्तबान और चादर जैसी छोटी-बड़ी चीजें ढोते-ढोते अम्मा फिर हांफ गईं। बीच-बीच में रूककर कभी घुटने दबाती तो कभी कमर सीधी करतीं, कभी सांस को काबू करती और कभी शख्त दृष्टि में आसमान की तरफ देखतीं। कुछ ऐसा संयोग हुआ कि अम्मा ने जैसे ही अंतिम सामान अंदर पहुंचाया, मोटी मोटी बूंदों के साथ तड़तड़ाते हुए बादल बरसने लगे। क्षण भर में पूरा आंगन गीला हो गया। शुक्र मनाती हुई अम्मा इस संयोग पर खुशी से उमग गई। पल भर की देरी से सब भीग जाता, बच गया।


अम्मा ने कपड़े सुखा भी लिए थे और भीगने से बचा भी लिए थे। दिन भर की अंदर-बाहर कर-कर निढाल हो चुकी अम्मा इस बात पर गहरे संतोष से भरी हुई थीं। मन तो जैसे उत्सव मनाने को ललक रहा था। अम्मा ने गलगल के आचार वाला मार्तबान उठा लिया और उससे उठतीं ख‌ट्टी खुशबू को देर तक सूंघती रहीं। खुशबू से मन-प्राण हरे हो गए तो गलगल को छोटी-सी फांक निकालकर जोभ से छुआई। छुवन आत्मा तक पहुंची तो अम्मा ने एक बड़ा सा चटकारा लिया और आंखें मिच गई। स्मृतियों का एक झंझावात फिर उठा और शांत हो गया। बाहर बारिश बरसती रही और भीतर गलगल की छुवन भरी स्मृतियां हरियाती रहीं। कराहती और घुटने दबाती हुई अम्मा निढाल होकर अम्मा तख्त पर गिर पड़ों। जाने अब धूप वाला दिन कब आएगा यह सोचते-सोचते अम्मा फिर ऊंघने लगी थी ं। 


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