भगवान श्री कृष्ण के जन्म व बाल लीलाओं की अमर कथा / भगवान श्री कृष्ण के जन्म से संबंधित महत्वपूर्ण विवरण / Story of Shree Krishna's Birth

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        🙏 जय श्री कृष्ण 🙏 

जब धर्म की हानि व अधर्म का विकास होता है. भगवान अपने भक्तों की रक्षा करने हेतु मानव अवतार लेते हैं। सोलह कला संपूर्ण भगवान श्री कृष्ण मा देवकी के गर्भ से जन्म लेकर मईया यशोदा की गोद में खेलते हुए वृंदावन की गोप गोपियों के साथ अपनी बाल लीलाओ का आनंद लेते हुए, माखन चोर, नटखट कृष्ण कन्हैया किस प्रकार दुष्ट का संहार करते है । 

भगवान श्री कृष्ण के जन्म व बाल लीलाओं की अमर कथा 

श्री कृष्ण का जन्म किसी असुर के विनाश के लिए बल्कि असुरी प्रवृत्तियों को नष्ट करने के लिए हुआ था। जब मनुष्य के मन में असुरी विचारधारा बस जाती है, तब उसे केवल अपना स्वार्थ नजर आता है। ऐसी परिस्थितियों में पाप का विनाश होता है। प्राणियों में सद्भावना नहीं रह जाती और राष्ट्र का पतन शुरू हो जाता है। लोगों के संस्कार नष्ट हो जाते है। द्वापर युग में कृष्ण का अवतार ऐसी ही विषम परिस्थितियों में हुआ। 

          द्वापर युग के कदम बढ़ रहे थे और धरती पर पाप भी बढ़ रहा था। मथुरा के राजा कंस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। वो एक दुष्ट, दुराचारी और नास्तिक शासक था, ईश्वर में उसका विश्वास नहीं था। इसी बात को लेकर उसने अपने पिता को कारागार में डाल दिया था, और स्वयं राजा बन गया था। उसके राज्य में पूजा-पाठ, हरिभजन व सारी धार्मिक क्रियाएँ बंद कर दी गई थी। यज्ञ शालाओ में गाय का मांस काटकर बिखेर दिया जाता था, हवन कुण्डों में पानी डाल दिया जाता था। विरोध करने वाले ऋषि मुनियों की हत्या कर दी जाती थी। चोरी-डकैती, नारियों का अपहरण साधारण सी बात हो गई थी, लोग भयभीत होकर जी रहे थे। न कोई नीति थी न कोई राजनीति, न कोई आचरण था और न ही कोई संस्कार। चारों ओर धर्म नष्ट हो चुका था। ऐसे समय में उसने अपनी चचेरी बहन देवकी का विवाह यदुवंशी शूरसेन के बेटे वासुदेव से किया। देवकी को उसके ससुराल स्वयं कंस लेकर चला तभी रास्ते में आकाशवाणी हुई "ऐ कंस तेरी इसी बहन के आठवें पुत्र के हाथों तेरी मृत्यु होगी।" इतना सुनते ही कंस घबरा गया और उसे क्रोध आ गया और उसने देवकी के बाल पकड़कर तलवार निकाल ली, और क्रोध में आकर कहा कि " मैं वो पेड़ ही जड़ से उखाड़ दूंगा जिस पर जिस पर मेरे मौत के फल लगने वाले है।" बेचारे वासुदेव खुशियाँ के इस पल में दीन-हीन हो गए, कुछ क्षण सोचने के बाद उन्होंने बड़ी चतुराई से काम लिया और बडी़ विनम्रता से कहा" महाराज कंस देवकी का पुत्र आपका शत्रु है न की आपकी बहन देवकी। आप इस अबला का वध करके अपनी सूर वीरता को कलंकित क्यूँ कर रहे है ये सारा संसार आपको कायर कहेगा, मैं यह अपमान नहीं सह सकता। देवकी को प्राणदान दे दीजिए। मैं आपको वचन देता हूँ कि देवकी की जितनी भी संतानें होगी उन सभी को लाकर आपको दे दिया करूँगा आप उनका वध कर दीजिऐगा जब सभी संतानें मर जाएंगी तब काल कौन होगा।https://www.chitraguptas.com/2023/07/blog-post_25.html

         पर विधाता का खेल तो निराला है होना कुछ और ही था। कंस की बुद्धि पलट गई उसने वासुदेव और देवकी को उनके महल में ले जाकर छोड़ दिया। समय बीतता गया और एक साल बाद के गर्भ से पहली संतान हुई तब वासुदेव को अपना दिया वचन याद आ गया। वासुदेव अपनी संतान को लेकर कंस के पास पहुंचा। वासुदेव की साधुता को देखकर कंस का विचार बदल गया। उसने वासुदेव की संतान की हत्या करने से मना कर दिया, कंस ने कहा " जीजा! मेरा काल तो आपकी आठवीं संतान हैं सारे संतानों की हत्या क्यों की जाए, आप इसे वापस ले जाए जब आठवीं संतान जन्म ले तो उसे मुझे लाकर दे देना।" वासुदेव ने ईश्वर का धन्यवाद किया और उस बच्चे को लेकर चले गए। नारद जी ने जब यह देखा तो मन में सोचने लगे यदि कंस इसी तरह दयालु बन जाएगा और अच्छा आचरण करेगा तो कैसे चलेगा? धरती पर पाप बढ़ेगा नहीं तो प्रभु का अवतार कैसे होगा?


           वीणा बजाते हुए नारद जी कंस के दरबार में पहुंचे। कंस ने मुनि का स्वागत किया। नारद जी ने अच्छा अवसर देखा तो पासा फेका। नारद जी ने जमीन पर आठ लकीरें खींचीं, लकीरों को एक प्रथम से अंत तक और एक बार अंत से प्रथम तक गिनकर दिखाया और कहा ' राजन! इनमें आठवाँ कौन-सा है, यह आप कैसे समझ पाऐंगे?' कंस नारद जी युक्ति से भ्रमित हो गया और उसने तुरंत सैनिकों को भेजा और वासुदेव और देवकी को पकड़वाकर कारागार में डाल दिया। उन्हें हथकड़ियों से जकड़ दिया, कड़ा पहरा लगा दिया गया। वासुदेव की संतान को छीनकर मार डाला और स्वयं की चौकसी करने लगा। अब वासुदेव की जो भी संतान होती उसे छीनकर पत्थर पर पटककर मार डालता। बेचारे असहाय और निर्दोष वासुदेव और देवकी अपने आंखों के सामने अपनी संतानों की निर्मम हत्या होते देखते पर कुछ नहीं कर पाते बस विवश होकर रोते और ईश्वर को याद करते। 

       धरती इस दु:ख को अब और सहन न कर पाई उसने अब गाय का रूप धारण किया और ब्रह्मा जी के पास गई और बोली हे भगवन! धरती पर राक्षसों का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा है कुछ कीजिये। फिर ब्रह्मा जी धरती को लेकर भगवान् शंकर के पास गए, भगवान् शंकर बोले हम सभी भगवान् विष्णु के पास जाकर विनय करते हैं, परमेश्वर के रूप वही है वही जग का कष्ट हरेंगें* ब्रह्मा सहित सभी विष्णु जी के पास पहुच गए, फिर ब्रह्मा जी बोले *हे नारायण! अब आपको पृथ्वी की रक्षा के लिए धरती पर अपने आठवें अवतार के रूप में अवतरित होना चाहिए।

        नारायण बोले "मैं धरती का सारा दु:ख जानता हूं लेकिन बिना कारण मैं जन्म नहीं लेता। जब पापों के बोझ से धरा व्याकुल हो जाती है और धर्म नष्ट हो जाता है तब मै अवतार लेता हूं। अब समय आ गया है मैं शीघ्र ही धरती पर अवतार लूंगा। आप लोग निश्चिन्त होकर जाइए और समय की प्रतीक्षा कीजिये।" सारे देवता धरती के साथ नारायण को नमन् करके वापस आ गए। अब श्री कृष्ण धरती पर जाने से पहले अपने सारे जीवन की योजना बनाना किये। उन्होंने सारे गोप-गोपियों को ब्रज में जन्म लेने का आदेश दिया। वायु, सूर्य, इन्द्र, धर्म और अश्वनी कुमारों को बुलाकर आदेश दिया कि वे भीम, कर्ण, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव को जन्म दे। समुद्र से कहा तुम शान्तनु और कालीकाल से कहा तुम दुर्योधन को जन्म दो। वही पर महाभारत की रचना, द्वारका पुरी की रूप-रेखा और युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की आधारशिला तैयार की, फिर योगमाया से कहा "रोहनी वासुदेव की 18 रानियों में पहली रानी है जो इस समय कंस के अत्याचार से भागकर गोकुल में नंद गोप की शरण में रहती है। देवकी के सातवें गर्भ को उन्ही के गर्भ में डाल देना जब मैं देवकी के गर्भ से जन्म लूंगा तब उसी समय तुम भी गोकुल में यशोदा के गर्भ से कन्या बनकर जन्म लेना" श्री कृष्ण ने अपनी बात समाप्त की ही थी उसी क्षण राधा जी वहाँ आ गई और उन्होंने कृष्ण से कहा प्रभु मुझे छोड़कर धरती पर जा रहे है ये वियोग मैं कैसे सह पाऊंगी तो श्री कृष्ण ने बड़े प्रेम से राधा को समझाया और बोले राधिके तुम भी ब्रज भूमि पर जन्म ले रही हो, हम दोनों मिलेंगे किन्तु श्रीदामा के श्रापवश हम दोनों को सौ वर्षों का वियोग तो सहना ही पड़ेगा। भगवान् श्री कृष्ण ने राधा को समझाकर ब्रज भूमि पर भेज दिया। सारी योजना पूर्ण हुई और अब स्वयं उनके धरती पर अवतार लेने का समय आ गया। कारागार में सभी देवतागण देवकी के गर्भ की स्तुति करने लगे।

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       भादों माह की अष्टमी, कृष्ण पक्ष, रोहणी नक्षत्र, बुधवार का दिन, रात आधी बीत चुकी थी, ऐसी अंधेरी रात में मथुरा की वो काल कोठरी उजियारे से भर गई। वासुदेव और देवकी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उनकी आंखे चकाचौंध हो रही थी। परमपिता परमेश्वर ने उन्हें समझाया और स्वयं ही बोले " मईया मैं बालक बन जाता हूं और मुझे आप गोद में ले लीजिए, पिता श्री आप मुझे तुरंत गोकुल में नंद के घर यशोदा के पास ले चलिए और वहाँ से उनकी कन्या को वापस लेकर कारागार में आ जाइए।" वासुदेव जी का इतना सोचना ही था कि उनके हाथो और पैरो की हथकडिय़ां स्वयं ही खुल गई, जेल के सारे ताले अपने आप खुल गए, जेल के सारे दरवाजे अपने आप खुल गए, सारे पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए कैदियों के लिए जिस टोकरी में भोजन आता था। वो एक टोकरी वही पड़ी थी। वासुदेव जी बालक को उसी टोकरी में रखा और टोकरी को सिर पर उठाकर कारागार से बाहर निकल पड़े। ऐसी विकट परिस्थिति, घनघोर बरसात, अंधेरी रात, जंगल का रास्ता, बाघ - चीतो का डर, कंस के सैनिको का डर भरी बरसात में किसी तरह डरते घबराते यमुना के किनारे पर पहुंचे तो यमुना का विकाराल रूप देखकर और भी घबरा गए। अथाह जलू के साथ, यमुना उमड़ रही थी। वसुदेव जी किनारे पर पहुंच कर सोचने लगे गोकूल पहुचना आवश्यक है। यमुना को पार कैसे किया जाए। ईश्वर को याद किया और यमुना नदी में उतर कर आगे बढ़ने लगे। शेषनाग कन्हैया को बारिश से बचाने लिए टोकरी के ऊपर अपना फन फैलाये, वासुदेव के पीछे-पीछे चलने लगे वासुदेव जी को इसका ज्ञान नहीं था। वासुदेव जी जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए यमुना का जल स्तर भी बढ़ने लगा।



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यमुना का भाव समझकर प्रभु ने टोकरी से अपना पांव जल में लटका दिया, यमुना विह्वल हो गई जी भर कर प्रभु के चरणों को धोया, शीश पर धरा और चूमा। यमुना अब शांत हो गई, उनका उफान अब खत्म हो गया और जल स्तर भी घट गया। वासुदेव जी पार होकर गोकुल पहुंचे। प्रभु की माया से वहां भी सारा गांव सो रहा था। नंद के घर के सभी द्वार खुले थे। वासुदेव जी ने घर में प्रवेश किया और बालक को यशोदा की बगल में लिटा दिया कन्या को उठाकर टोकरी में डाला और कारागार मे वापस आआते ही सभी दरवाजे स्वयं बंद हो गए, ताले लग गए, हथकड़ियों व बेड़ियां फिर से लग गए सभी पहरेदार जाग गए। बच्चे के रोने की आवज सुनकर पहरेदार कंस को खबर देने के लिए भागे। लड़खड़ाता हुआ भयभीत कंस भागकर आया ये देवकी वासुदेव की आठवी सतान को जो कंस का काल थी उसने देवकी से उस बालिका को छीन लिया। पत्थर पर पटकने के लिए जैसे ही उसने बालिका को ऊपर उठाया तो बालिका हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई, कंस हक्का-बक्का रह गया। बालिका ने आकाश में अष्टभुजी दुर्गा का रूप धारण कर लिया। शेर पर सवार होकर स्वर्णमुकुट शीश पर धरे शोभायमान हो रही थी। कन्या ने आकाश से अष्टहास किया उस अष्टहास को सुनकर सारा ब्रह्माण्ड कांप गया। उसने कहा "पापी कंस तूने मुझे मारने का प्रयास किया तेरा काल तो गोकुल में जन्म ले चुका है।" ये सुनते ही कंस घबरा गया। माँ दुर्गा इतना कहकर अंर्तध्यान हो गई। उधर गोकुल में कन्हैया के जन्म का उत्सव मनाया जा रहा था। ये दिन लोगों ने गोकुलाष्टमी के नाम से बड़ी धूम -धाम से मनाया। समय बीता और नामकरण की तिथि आई। माघ शुक्ल के चतुर्दशी को गर्ग मुनि आए और नंद जी ने उसी शुभ मुहूर्त में नामकरण करवाया। 


 पुत्र रोहणी का गोरा था बलदाऊ कहलाया। 

श्याम रंग लाल यशोदा कृष्ण नाम धराया।। 

दोनों ही वासुदेव के पुत्र थे। इधर गोकुल में कृष्ण और बलराम का बचपन किलोल कर रहा था। उधर कंस अपने शत्रु को मारने के प्रयास से परेशान था। उसने अपने सारे मायावी राक्षसो को आदेश दिया कि वो गोकुल जाकर उसके शत्रु का पता लगाए और मिलते ही उसे मौत के घाट उतार दे। कंस की भेजी हुई पहली मायवी राक्षसी पूतना एक ब्राह्मण सुन्दर युवती का रूप बनाकर गोकुल में नंद के घर आई, कन्हैया तो अंर्तयामी थे वो वह सब जानते थे कि पूतना कोई साधारण नारी नहीं एक राक्षसी है। पलक झपकते ही कन्हैया ने पूतना के प्राण ले लिए इसके बाद तो कंस के मायावी राक्षस आते रहे और कान्हा उन्हें मारते रहे। बगुले के रूप में बकासुर आया कन्हैया ने उसकी सोच पकड़ कर तोड़ दिया, अजगर के रूप में अघासुर आया उसका जबड़ा पड़ककर फाड़ दिया, फिर धेनु और प्रबल जैसे असुर आए उनका भी कन्हैया ने वध कर दिया। कन्हैया ज्यों-ज्यों बड़े हो रहे थे नटखट होते जा रहे थे। एक बार मैया यशोदा घर के कार्यों मैं व्यस्त थी। कन्हैया ने उन्हें बुलाया तो उन्होंने ध्यान नहीं दिया, फिर क्या था कन्हैया ने उत्पाद मचाना शुरू कर दिया दूध दही की मटकियां तोड़फोड़ डाली। जो दही मक्खन बचा था उसे लाकर ग्वाल-वालों के बीच बैठकर खाने लगे। 

कहे कन्हैया खाओ भैया कर दो मटकी खाली, 

मां ने जो माखन रखा था सब में लेकर आया। 

ढूंढ रही होगी मां मुझको उसको आज छकाया, 

छड़ी लेकर कहती होगी कहां गया कृष्णा।।

        कन्हैया यह कहकर तालियां पीटने लगे इतने में मैया यशोदा सचमुच में हाथों में छड़ी लेकर आ गई। मैया को देखते ही सभी चुप हो गए कन्हैया तो आंखें नीचे करके खड़े हो गए। मैया तो सब जानती थी, उन्होंने कन्हैया की ठुड्डी पड़कर चेहरे ऊपर उठाया और पूछा यह क्या है कन्हैया घबरा गए और बड़ी ही मीठी बोली। जिसे सुनकर मैया का मन भर आया। झूठा गुस्सा दिखाते हुए छड़ी हवा में लहराने हुए बोली चल घर अभी बताती हूं। मां यशोदा ने हाथ पकडा़ और घर लाकर रस्सी में बाधने लगी परंतु यह क्या मैया बाधते-बाधते थक गई, घर की सारी रस्सी समाप्त हो गई, लेकिन कन्हैया बंध नहीं सके। मैया हैरान हो गई थककर माथा ठोकते हुए बोली यह क्या है रे कन्हैया यह सुनकर कन्हैया मुस्कुराए और मैया के गले से लग गए। कन्हैया के मन में इस एक दिन आया कि मैया को ब्रह्मांड के दर्शन कराया जाए, कन्हैया मिट्टी खाने लगे किसी ने देखा तो मैया यशोदा से जाकर कह दिया। तो मैया भागती हुई आई और कन्हैया को डांटती हुई बोली तू मिट्टी खा रहा है निकाल मुंह से मिट्टी अपना मुंह खोलकर दिखा तो.. कन्हैया ने मुंह खोलकर दिखाया, यशोदा ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित तीनों लोक का अद्भुत नजारा कान्हा के मुंह में देखकर यशोदा चक्कर खाकर गिर गई। 

       कन्हैया ने अपनी माया बटोरी। मां को होश आया तो उन्होंने कन्हैया को छाती से लगा लिया। कन्हैया जब 5 साल के हुए तो ग्वाल-वालों के संग गाय चराने का हठ करने लगे, नंद बाबा के हां करने पर कन्हैया गाय चराने जंगल में जाने लग गए। एक दिन कन्हैया अपने साथियों के साथ गेंद खेल रहे थे। गेंद उछलकर यमुना में चली गई जहां गेंद गिरी थी, उसे कालीदह कहते थे। जहां 100 फनों वाला एक विषैला नाग रहता था। उसके विष के प्रभाव से यमुना के चारकोष तक जल विषैला हो गया था। कन्हैया गेंद लाने के लिए यमुना में कूद पड़े। ग्वाल-वालों में घबराहट फैल गई। यमुना के किनारे कोहराए मचा था, गोकुल में खबर गई तो सभी गोकुलवासी वहां पहुंच गए। कालीदह में कन्हैया कालिया नाग से लड़ रहे थे। कालिया गुस्से से लाल लाल आंखें निकाले अपने 100 फनों से कन्हैया पर विष उगल रहा था। कन्हैया जब उछलकर कालिया के सिर पर खड़े हो गए तो कालिया को लगा जैसे सारे ब्रह्मांड का भार उसके सिर पर रख दिया गया हो। उसकी जिह्वा बाहर आ गई और मुंह से झाग गिरने लगा। कालिया की पत्नियों ने जब यह देखा तो वह हाथ जोड़कर बाहर आई और कन्हैया से विनती करने लगी "हे मुरलीधर! इन्हें छोड़ दो दया करो हम पर, इनका गर्व चूर्ण हो गया है इनको जीवनदान दे दीजिये" कन्हैया ने कहा "तूने अहंकार के मद में आकर कितने जीवों की हत्या कर डाली तेरे जीवित रहने का एक ही उपाय है कि यह जगह छोड़कर रौनक द्वीप चला जा, वहाँ गरुड़ रहते हैं यदि तुझे उनसे डर है तो तू उनसे मेरा नाम लेना और अपने सिर पर बने मेरे पांव के निशान उन्हें दिखा देना। वह तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे। जाने से पहले तुम्हें एक काम और करना होगा तुम्हें गोकुल वासियों से क्षमा मांगनी होगी क्योंकि तुम उनके अपराधी हो मैं इसी तरह तुम्हारे सिर पर खड़ा रहूंगा" कालिया ने कन्हैया की बात मान ली। कन्हैया कमर से बांसुरी निकालकर बजाते हुए कालिया के सिर पर खड़े होकर बाहर आए। गोकुलवासी उन्हें देखते ही हर्ष से झूम उठे। कालिया ने सबसे अपने अपराधों की क्षमा मांगी और अपने जाने का विश्वास दिलाया। श्री कृष्ण को लोगों ने अपने बाहों में भर लिया। खुशी के मारे सबकी आंखों से आंसू निकल आए। उधर कंस ने कृष्ण को मार डालने का अंतिम और बलशाली उपाय सोचा। उसने अपने खजांची आक्रूर जो नंद महाराज के मित्र थे। उनके हाथों गोकुल में निमंत्रण भेजा कि मथुरा में धनुष यज्ञ का महोत्सव है। उसमें कृष्ण और बलराम को भी बुलाया गया है। दोनों भाई रथ पर सवार होकर मथुरा पहुंचे। नंद महाराज के साथ गोकुल के गोप भी उत्सव में भाग लेने के लिए गए। 


मथुरा नगर पहुंच कर कान्हा यमुना तट पर उतरे 

बलदाऊ के साथ कन्हैया नगर घूमने निकले

कुबडी़ नारी नाम था कुब्जा रूप बड़ा मनभावन

कौन हो किसके यहाँ जा रही पूंछ लिए मनमोहन

       कुब्जा ने कान्हा से कहां मैं कंस की दासी हूं और कटोरी में चंदन है जो महाराज के लिए ले जा रही हूं। कन्हैया ने कुब्जा से कहा क्या यह चंदन मुझे लगा सकती हो। कुब्जा यह सुनते ही धन्य हो गई, मनमोहन का लुभावना रूप देखकर मोहित हो गई। कन्हैया ने माथा झुकाया कुब्जा ने चंदन का लेप किया और जी भरकर कन्हैया के रूप को निहारती रही उसे कुछ भी होश ना रहा। इसी बीच कन्हैया ने उसकी दोनों बाहें पकडी़ और उठाकर जोर से एक झटका दिया। कुब्जा का कूबड़ एकदम से ठीक हो गया। कुब्जा कन्हैया के चरणों में गिर पड़ी। कान्हा ने उसे उठाकर गले से लगा लिया यही कुब्जा को कन्हैया से प्रेम हुआ। https://www.chitraguptas.com/2023/08/blog-post_22.htmlकंस ने कन्हैया को कुबलिया पीड़ हाथी से कुचलवा कर कृष्ण को मारने की योजना बनाई। कन्हैया ने मुख्य द्वार पर ही हाथी को देख लिया था और सब कुछ समझ गए थे। वह चुपके से रंगभूमि में घुसकर और चबूतरे पर रखा हुआ धनुष उठाकर तोड़ दिया। धनुष के टूटते श्री कृष्ण सैनिकों से घिर गए, क्योंकि धनुष तोड़कर कन्हैया ने कंस का अपमान किया था। कन्हैया ने धनुष के टुकड़े से ही सारे सैनिकों को घायल कर दिया। जब सारे सैनिक भागने लगे तो महावत ने कुबलिया पीड़ हाथी को छोड़ दिया वह नशे में झूमता हुआ कन्हैया की और बढ़ने लगा। जब हाथी ने कन्हैया को मारना चाहा तो कन्हैया ने उसकी सूंड पड़कर धरती पर पटक कर मार डाला। 

       दूसरे दिन सारे नगर निवासियों के साथ रंगभूमि में आए। आज मल्युयद्ध का आयोजन था। कन्हैया को देखकर चार्णूय ने लड़ने के लिए ललकारा। कन्हैया ने कुछ देर सोचा और अखाड़े में उतर गए। लोग चिल्लाते रहे यह बेजोड़ कुश्ती है, बेमेल जोड़ है, यह अन्याय है, किंतु कौन सुन रहा था। कन्हैया और चाणूर का मल्युद्ध शुरू हो गया। बलशाली चाणूर कन्हैया पर भारी पड़ रहा था। कंस सोच रहा था कि आज चाणूर मेरे शत्रु को अवश्य मार डालेगा। इतने में श्री कृष्ण की जय जयकार हुई। श्री कृष्णा चाणूर को गिरकर उसकी छाती पर सवार हो गए और मुक्कों से प्रहार करने लगे, देखते ही देखते चाणूर के प्राण निकल गए और एक बार फिर सभा गूंज उठी बोलो कंहैया लाल की जय। यह देखकर कंस उदास हो गया फिर उसने मुष्टिक नमक पहलवान को लड़ने के लिए अखाड़े में उतरा। बलदाऊ जी ने अखाड़े में देखा जहां मुष्टिक खड़ा था। बलदाऊ ने एक मुष्टिका कसकर मारी और मुष्टिका मरा पड़ा था। 

       भयभीत हो गया कंस वही सोचने अब क्या करूं। लेकिन कन्हैया मौका कहां देने वाले थे, वह उछलकर कंस के ऊंचे मंच पर पहुंच गए। जहां कंस सिंहासन पर बैठा था। कन्हैया को देखते ही कंस ने तलवार निकाल कर कन्हैया पर प्रहार किया। कन्हैया पहले से ही होशियार थे, अपने को बचा लिया। घंटों उस मंच पर कंस लड़ता रहा, वार करता रहा और कन्हैया बचते रहे। घमासान युद्ध होने लगा कभी कंस ऊपर होता तो कभी कन्हैया नीचे। महाबली से महाशक्ति का मल्युयद्ध सब देख रहे थे। युद्ध करते हुए कंस के बाल कन्हैया के हाथों में आ गए, फिर तो कन्हैया ने उस मंच से कंस को एक झटके में गेंद की तरह उछाल कर धरती पर फेंक दिया। कंस धरती पर गिरा और कन्हैया उनकी छाती पर कूद पड़े। कन्हैया के मुष्टिका प्रहार से कंस के प्राण उड़ गए। सैनिकों में भगदड़ मच गई सभा में जय जयकार होने लगा। देवतागढ़ नभ से पुष्प बरसाने लगे और जय जयकार करने लगे प्रेम से बोलिए पापियों के प्राण हरता भगवान श्री कृष्ण की जय। उसी क्षण भगवान श्री कृष्णा कारागार पहुंचे। 


 टूट गई हथकड़ी बेड़ियाँ पहुंचे कृष्ण कन्हैया। 

 दूर हुए दुख मात-पिता के पार लगाए नैया।। 

उग्रसेन को बंदी ग्रह से राजमहल ले आए। स्वर्ण मुकुट पहनाकर सिंहासन बैठाये। वासुदेव देवकी बोल उठे जय श्री कृष्ण🙏


https://www.chitraguptas.com/2023/09/maa-durga-ke-nav-rupon-ka-varnan.html


        कृष्ण की कथा का कोई अंत नहीं जो स्वयं परमपिता परमेश्वर है उनका वर्णन भला हम कैसे कर सकते हैं। श्री कृष्ण ने हम सबको जीवन का दर्शन, नीति और मनुष्यता सिखाया। हमें न्यायपूर्वक जीना सिखाया। 

        पाप का विकास पर्वत की तरह ऊंचा होता है किंतु उसका पतन सागर से भी गहरा होता है। हमें सच्चे मार्ग पर चलना चाहिए। अन्याय से बचना चाहिए। ईमानदार व्यक्ति की एक छोटी सी झोपड़ी बेईमान व्यक्ति के महल से ज्यादा मूल्यवान होती है। ईश्वर की कृपा सदा सच्चे इंसान पर ही होती है इन्हीं शब्दों के साथ यह कथा समाप्त करती हूं🙏 


🌹🌺🙏जय श्री राधेकृष्ण🙏🌺🌹

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